महाराष्ट्र की राजनीति जब जीत कर भी खुश नहीं दिख रहे साथी, आखिर माजरा क्या है?

Post

News India Live, Digital Desk : महाराष्ट्र की राजनीति भी न, किसी वेब सीरीज के सस्पेंस से कम नहीं है। हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनावों (Local Body Polls) के नतीजे आए, तो लगा कि सरकार में सब 'बल्ले-बल्ले' करेंगे। भाई, जीत तो जीत होती है! बीजेपी ने बाजी मारी और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। कायदे से तो महायुति (बीजेपी+शिंदे+अजित पवार) खेमे में जश्न का माहौल होना चाहिए था, लड्डू बंटने चाहिए थे।

लड्डू बंटे जरूर, लेकिन राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि इस मिठास में थोड़ी कड़वाहट भी छिपी है। हुआ यूँ कि बीजेपी की इस शानदार जीत ने न सिर्फ विपक्ष को 'सुन्न' कर दिया, बल्कि अपने ही साथियों यानी एकनाथ शिंदे और अजित पवार गुट की नींद उड़ा दी है। आइए, आसान भाषा में समझते हैं कि आखिर ये "जीत का साइड इफेक्ट" है क्या?

बीजेपी बनी 'बिग बॉस', सहयोगी हुए बौने?
राजनीति का एक सीधा उसूल है—जिसके पास जनता, उसी का राज। इन चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया कि महाराष्ट्र के ग्रासरूट लेवल पर बीजेपी की पकड़ बेहद मजबूत है। अब यही बात सीएम शिंदे और डिप्टी सीएम अजित पवार के लिए खतरे की घंटी बन गई है।

जरा सोचिए, अगर घर का बड़ा भाई (बीजेपी) सारा काम अकेले निपटा ले, तो छोटे भाइयों (सहयोगी दलों) की अहमियत क्या रह जाएगी? चर्चा ये चल पड़ी है कि बीजेपी अब उस स्थिति में आ रही है जहां उसे बैसाखियों की शायद उतनी जरूरत न पड़े। शिंदे गुट और अजित पवार गुट को ये डर सताने लगा है कि अगर बीजेपी ऐसे ही अकेले अपने दम पर छा गई, तो आने वाले विधानसभा या बड़े चुनावों में टिकट बंटवारे के वक्त उनकी 'बार्गेनिंग पावर' यानी मोलभाव करने की क्षमता खत्म हो जाएगी। वे महज एक छोटे हिस्सेदार बनकर रह जाएंगे।

उद्धव और कांग्रेस: उम्मीदें टूटीं, तनाव बढ़ा
दूसरी तरफ, विपक्ष का हाल भी बेहाल है। महाविकास आघाड़ी (MVA), जिसमें उद्धव ठाकरे की शिवसेना और कांग्रेस शामिल हैं, उन्हें इन नतीजों से करारा झटका लगा है। उम्मीद थी कि जनता सरकार की आपसी खींचतान से नाराज होकर विपक्ष का साथ देगी, लेकिन पासा उल्टा पड़ गया।

यह कांग्रेस और उद्धव ठाकरे के लिए सिर्फ हार नहीं, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई का सवाल बनता जा रहा है। अगर जमीनी स्तर (लोकल बॉडी) पर ही पकड़ ढीली हो गई, तो इमारत कैसे खड़ी रहेगी? कार्यकर्ता हताश हैं और नेताओं के माथे पर पसीना।

क्या ये 2029 (या अगले चुनावों) का ट्रेलर है?
यह नतीजे सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, ये एक मैसेज हैं। बीजेपी ने यह साबित कर दिया है कि उसकी अपनी एक अलग "वोट बैंक केमिस्ट्री" है। यह जीत सहयोगियों के लिए एक 'वर्निंग' भी है कि "भाई, अपनी परफॉरमेंस सुधारो, वरना गाड़ी छूट जाएगी।"

कुल मिलाकर माहौल यह है कि बीजेपी के दफ्तर में ढोल बज रहे हैं, लेकिन गठबंधन के साथियों के दफ्तरों में सन्नाटा है जो बहुत कुछ कह रहा है। राजनीति में दोस्त कब प्रतियोगी बन जाए और कब प्रतियोगी बोझ बन जाए, इसका पता इन नतीजों ने बखूबी दे दिया है। अब देखना यह होगा कि शिंदे और पवार इस "बीजेपी वाली लहर" में खुद को कैसे तैराते हैं।

--Advertisement--