Election Funding : बॉन्ड खत्म, पर ट्रस्ट का खेल शुरू ,बीजेपी को मिले 3000 करोड़ से ज्यादा, बाकी कहां हैं?
News India Live, Digital Desk : आपको वो दिन याद है जब सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स (Electoral Bonds) पर रोक लगाई थी? उस वक़्त लगा था कि भाई, अब राजनीति में पैसे का खेल थोड़ा पारदर्शी हो जाएगा। आम आदमी को लगा था कि अब काले-सफ़ेद धन की 'लुका-छुपी' बंद होगी। लेकिन कहते हैं न, 'जहाँ चाह वहां राह', और हमारे नेताओं और कॉरपोरेट कंपनियों ने मिलकर फंड देने का नया रास्ता (या यूँ कहें कि पुराना लेकिन मज़बूत रास्ता) ढूंढ ही लिया।
ताज़ा ख़बर यह है कि बॉन्ड बंद होने के बावजूद, राजनीतिक पार्टियों की जेब पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। उल्टा, पैसों की बारिश तो अभी भी जारी है!
क्या है पूरा मामला?
रिपोर्ट्स सामने आई हैं कि चुनावी बॉन्ड पर बैन लगने के बाद, इलेक्टोरल ट्रस्ट (Electoral Trust) फिर से एक्टिव हो गए हैं। वित्तीय वर्ष 2024-25 के जो आंकड़े सामने आए हैं, वो किसी को भी चौंका देने के लिए काफी हैं। अलग-अलग इलेक्टोरल ट्रस्ट्स के जरिए पार्टियों को कुल 3,811 करोड़ रुपये का चंदा मिला है।
अब असली मज़ा इस बात में नहीं है कि कुल कितना पैसा आया, बल्कि इस बात में है कि 'केक का सबसे बड़ा टुकड़ा' किसने खाया।
बीजेपी की बंपर कमाई!
सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी (BJP) का जलवा कायम है। कुल 3,811 करोड़ में से अकेले बीजेपी के खाते में लगभग 3,112 करोड़ रुपये आए हैं। आप गणित लगाइए—ये कुल चंदे का करीब 82% हिस्सा है! इसे देखकर तो यही लगता है कि कॉरपोरेट जगत का एकतरफा भरोसा सिर्फ 'कमल' पर ही है। पैसा चाहे बॉन्ड से आए या ट्रस्ट से, रास्ता कोई भी हो, मंज़िल ज़्यादातर बीजेपी का बैंक अकाउंट ही है।
कांग्रेस का क्या हाल है?
विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी, कांग्रेस (Congress) इस दौड़ में बीजेपी से बहुत पीछे, मतलब बहुत ही पीछे नज़र आ रही है। उन्हें सिर्फ़ 299 करोड़ रुपये से ही संतोष करना पड़ा। अगर तुलना करें तो बीजेपी को कांग्रेस से 10 गुना ज़्यादा चंदा मिला है। यह खाई इतनी बड़ी है कि चुनावी मुकाबलों में 'संसाधनों' (Resources) की कमी साफ समझ में आती है।
बाकी बचे हुए पैसे में दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां जैसे AAP और BRS निपट गईं।
पैसा आ कहाँ से रहा है?
अगर बॉन्ड नहीं हैं, तो यह पैसा 'ट्रस्ट' के ज़रिए आ रहा है। इसमें सबसे बड़ा खिलाड़ी बनकर उभरा है 'प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट' (Prudent Electoral Trust)। ख़बर है कि ज़्यादातर बड़ा चंदा इसी ट्रस्ट के माध्यम से रूट हुआ है। यह सिस्टम ऐसा है कि कंपनियां ट्रस्ट को पैसा देती हैं और ट्रस्ट आगे पार्टियों को। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद, यह तरीका अब फिर से 'नंबर 1' बन गया है।
सीधी बात
कुल मिलाकर बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने दरवाजा बंद किया तो पैसों ने खिड़की ढूंढ ली। इलेक्टोरल बॉन्ड गए, लेकिन कॉर्पोरेट चंदे की रफ्तार नहीं थमी। एक तरफ जहाँ एक पार्टी पैसों से लबालब है, वहीं दूसरी पार्टियां फंड के लिए संघर्ष कर रही हैं। लोकतंत्र में यह 'आर्थिक असमानता' आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा।
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