Uttar Pradesh : जिस सिंहासन पर बैठते हैं प्रभु श्री राम, वो 120 साल पुराना है ,प्रयागराज की रामलीला का वो रहस्य जो हर कोई नहीं जानता
News India Live, Digital Desk: रामलीला... यह शब्द सुनते ही मन में भक्ति और भव्यता की तस्वीरें उभर आती हैं. देश के कोने-कोने में दशहरे के समय रामलीला का मंचन होता है, लेकिन कुछ जगहों की रामलीला अपनी सदियों पुरानी परंपराओं और अनूठी विरासत के लिए जानी जाती है. ऐसी ही एक खास रामलीला होती है संगम नगरी प्रयागराज में, जहां प्रभु श्री राम आज भी 120 साल पुराने सिंहासन पर विराजते हैं.
यह कोई मामूली सिंहासन नहीं, बल्कि इतिहास और आस्था का एक जीता-जागता प्रतीक है. हर साल दशहरे के मौके पर जब प्रयागराज की सड़कों पर प्रभु श्री राम की शोभायात्रा (चौकी) निकलती है, तो लाखों आंखें सिर्फ एक झलक पाने को बेताब रहती हैं - उस चांदी के सिंहासन की, जिस पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ विराजमान होते हैं.
कहां से आया यह ऐतिहासिक सिंहासन?
यह अद्भुत और कीमती सिंहासन प्रयागराज की प्रसिद्ध 'पत्थरचट्टी रामलीला कमेटी' की अनमोल धरोहर है. कहानी लगभग 120 साल पुरानी, 1904 के आसपास की है. उस समय रीवा (मध्य प्रदेश) के महाराजा हुआ करते थे राजा गुलाब सिंह. कहा जाता है कि महाराजा साहब भगवान राम के अनन्य भक्त थे और प्रयागराज की इस रामलीला से उनका गहरा लगाव था.
अपनी इसी भक्ति और श्रद्धा को प्रकट करने के लिए उन्होंने रामलीला कमेटी को लगभग 65 किलो शुद्ध चांदी से बना यह भव्य सिंहासन भेंट किया था. तब से लेकर आज तक, यानी एक सदी से भी ज़्यादा समय से, इसी सिंहासन का उपयोग रामलीला के दो सबसे खास मौकों पर किया जाता है.
साल में सिर्फ दो दिन के लिए निकलता है लॉकर से
इस सिंहासन की कीमत और ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए इसकी सुरक्षा का भी खास ख्याल रखा जाता है. यह पूरे साल बैंक के एक सुरक्षित लॉकर में बंद रहता है. इसे सिर्फ दो ही मौकों पर बाहर निकाला जाता है:
- विजयदशमी की शोभायात्रा (चौकी): दशहरे के दिन जब प्रभु श्री राम की भव्य शोभायात्रा प्रयागराज की सड़कों से गुज़रती है, तो इसी सिंहासन पर भगवान के स्वरूपों को बैठाया जाता है. हज़ारों लोग इस सिंहासन को खींचते हैं और इस शाही सवारी के दर्शन करते हैं.
- श्री राम का राज्याभिषेक: रामलीला के अंत में जब भगवान श्री राम का राज्याभिषेक होता है, तो उन्हें इसी 120 साल पुरानी राजगद्दी पर बिठाया जाता है. यह पल इतना जीवंत होता है कि मानो समय ठहर गया हो और लोग सच में त्रेता युग में पहुंच गए हों.
प्रयागराज की यह परंपरा सिर्फ एक रीति-रिवाज नहीं, बल्कि हमारी उस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का सबूत है, जिसे पीढ़ियों ने सहेजकर रखा है. यह हमें बताती है कि आस्था और भक्ति की जड़ें कितनी गहरी होती हैं, जो समय के साथ और भी मज़बूत होती चली जाती हैं.
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