एक देश, दो कानून: क्या कुछ परंपराएं महिलाओं के बराबरी के हक से भी बड़ी हैं? सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खड़ी की बड़ी बहस
भारत एक ऐसा देश है, जहां जितनी विविधता है, उतने ही तरह के कानून और रीति-रिवाज हैं। हर धर्म और संस्कृति का सम्मान करने के लिए अलग-अलग कानून बनाए गए हैं, ताकि किसी की पहचान न खोए। लेकिन तब क्या होता है, जब संस्कृति और परंपरा की आड़ में किसी के बुनियादी अधिकार छीन लिए जाएं? खासकर, महिलाओं के?
यह सिर्फ एक सवाल नहीं, बल्कि एक कड़वी हकीकत है। आज भी देश के कई आदिवासी समुदायों में महिलाओं को परिवार की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता। सारी जायदाद सिर्फ बेटों में बंट जाती है और बेटियां खाली हाथ रह जाती हैं।
ऐसा ही एक दिल दुखाने वाला मामला 22 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर पहुंचा।
कहानी शुरू हुई हिमाचल प्रदेश से
यह मामला जुड़ा है 2015 में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के एक बहुत ही साहसिक फैसले से। हाईकोर्ट ने कहा था कि यह बहुत गलत है कि आजादी के इतने साल बाद भी हिमाचल के कुछ आदिवासी समुदायों में बेटियों को संपत्ति में कोई हक नहीं दिया जा रहा। सामाजिक बराबरी के लिए यह जरूरी है कि इन महिलाओं को भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) के तहत पुरुषों की तरह ही संपत्ति में बराबर का अधिकार मिले। यह एक बड़ा और प्रगतिशील कदम था।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों पलट दिया फैसला?
लेकिन, हिमाचल हाईकोर्ट के इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। और देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस फैसले को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि हाईकोर्ट का यह फैसला लागू नहीं किया जा सकता।
इसके पीछे कोर्ट ने जो वजहें बताईं, वे कानून की नजर से तो सही थीं, लेकिन बराबरी के हक पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर गईं:
- आदिवासियों के अपने कानून: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) के अपने अलग रीति-रिवाज और कानून होते हैं, और वे हिंदू कानूनों के तहत नहीं आते।
- कानून में ही लिखी है यह बात: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में ही साफ-साफ लिखा है कि यह कानून अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा।
- पूरा कानून बदलना पड़ेगा: इसलिए, अगर यह नियम बदलना है, तो पूरे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करना होगा, जो अभी संभव नहीं है। कोर्ट का कहना था कि देश में अलग-अलग समुदाय अपने-अपने कानूनों से चलते हैं, और उनके इन अधिकारों का सम्मान करना जरूरी है।
लेकिन एक सवाल हम सबके लिए...
कोर्ट ने तो कानून की बात कह दी, लेकिन एक बड़ा सवाल हम सबके लिए अब भी खड़ा है। 26 नवंबर 2025 को हमारे संविधान को बने हुए 76 साल पूरे हो जाएंगे। इस संविधान की सबसे खास बात यह है कि इसने हर इंसान को उसकी जाति, धर्म, लिंग या भाषा से ऊपर उठकर, सिर्फ एक इंसान के तौर पर देखा है और बराबरी का हक दिया है।
जब हमारा संविधान बराबरी की इतनी बड़ी और खूबसूरत बात कहता है, तो कुछ समुदायों में महिलाओं को आज भी संपत्ति जैसे बुनियादी हक से वंचित रखना, आपको कितना सही लगता है? क्या परंपराएं और रीति-रिवाज इतने बड़े हो सकते हैं कि वे इंसानियत और बराबरी के हक को भी पीछे छोड़ दें?
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