यह दरवाज़ा नहीं, लखनऊ का दिल है!
अगर आप लखनऊ आए हैं और बड़े इमामबाड़े के पास खड़े इस शानदार दरवाज़े को देखकर पल भर के लिए रुके नहीं, तो समझिए आपकी यात्रा अधूरी है. यह है रूमी दरवाज़ा, और यह सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारत नहीं, बल्कि लखनऊ की पहचान है, इसकी आत्मा है. 60 फुट ऊंचा यह दरवाज़ा आज लखनऊ शहर का प्रतीक (Logo) है.
लेकिन इसकी खूबसूरती से भी ज़्यादा खूबसूरत है इसे बनाने के पीछे की कहानी.
जब एक दरवाज़े ने भूखे शहर को दी उम्मीद
यह कहानी भी उसी दौर की है, जब अवध में भयानक अकाल पड़ा था और नवाब आसफुद्दौला ने लोगों को रोज़गार देने के लिए बड़ा इमामबाड़ा बनवाना शुरू किया था. उसी "काम के बदले अनाज" अभियान के तहत, 1784 में इस दरवाज़े का निर्माण भी शुरू किया गया. यह दरवाज़ा भी नवाब की उसी रहमदिली का सबूत है, जिसके लिए कहावत बनी- "जिसे न दे मौला, उसे दे आसफुद्दौला."
लखनऊ में तुर्की का एक टुकड़ा
क्या आपको इसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि इसकी बनावट आम मुगलिया इमारतों से थोड़ी अलग है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह दरवाज़ा तुर्की के शहर इस्तांबुल (उस समय के कॉन्स्टेंटिनोपल) के एक पुराने दरवाज़े की नकल है. "रूमी" शब्द का इस्तेमाल भी तुर्की के लिए ही किया जाता था, इसीलिए इसका नाम रूमी दरवाज़ा पड़ा.
इसके ऊपरी हिस्से में एक आठ कोनों वाली छतरी बनी है, और कहते हैं कि पुराने ज़माने में इसके ऊपर एक बड़ा सा लैंप जलाया जाता था, जो रात में इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देता था.
कभी था शहर का 'एंट्री गेट'
एक ज़माना था जब यह दरवाज़ा पुराने लखनऊ शहर का मुख्य प्रवेश द्वार हुआ करता था. यानी अगर आपको शहर में داخل ہونا है, तो आपको इसकी शान के नीचे से गुज़रना पड़ता था. आज भले ही शहर इसके चारों तरफ मीलों तक फैल गया हो, लेकिन आज भी यह लखनऊ के दिल में उसी शान से खड़ा है.
रूमी दरवाज़ा सिर्फ एक स्मारक नहीं, यह लखनऊ की तहज़ीब, नवाबी शान और इंसानियत की एक ऐसी कहानी है जो सदियों बाद भी हर आने-जाने वाले को अपनी तरफ खींच लेती है.
--Advertisement--