झारखंड के बीहड़ जंगलों से वापस लौटा नाबालिग नक्सली, आपबीती सुनकर पसीज जाएगा दिल

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News India Live, Digital Desk: झारखंड के सारंडा (Saranda) के घने जंगलों को एशिया का सबसे घना साल वन कहा जाता है, लेकिन पिछले कई सालों से यह इलाका माओवादियों और गोलियों की गूंज के लिए जाना जाता रहा है। इसी बीच, आज एक ऐसी खबर आई है जो एक तरफ हमें सुकून देती है, तो दूसरी तरफ एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती है।

पश्चिमी सिंहभूम (चाईबासा) जिले में एक नाबालिग नक्सली (Minor Naxalite) ने पुलिस और सीआरपीएफ के सामने आत्मसमर्पण (Surrender) किया है। सोचिए, जिस उम्र में हाथों में स्कूल का बस्ता और आँखों में सपने होने चाहिए थे, उस उम्र में यह बच्चा जंगल में भारी-भरकम राइफल ढो रहा था।

मासूमों को ढाल बना रहे नक्सली?
पुलिस के सामने सरेंडर करने के बाद जो बातें सामने आई हैं, वो माओवादियों की क्रूरता को बेनकाब करती हैं। दरअसल, पुलिस और सुरक्षा बलों की लगातार दबिश के चलते नक्सली बैकफुट पर हैं। बड़े कैडर या तो मारे जा रहे हैं या भाग रहे हैं। ऐसे में, अपनी घटती ताकत को छिपाने के लिए वे अब गांव के भोले-भाले नाबालिग बच्चों को बहला-फुसलाकर या डरा-धमकाकर संगठन में शामिल कर रहे हैं।

यह बच्चा भी इसी 'साजिश' का शिकार हुआ था। उसे क्रांति के झूठे सपने दिखाए गए थे, लेकिन जंगल की असलियत कुछ और ही निकली—वहां सिर्फ़ भूख, डर और मौत का साया था।

'ऑपरेशन' का असर और घर की याद
पुलिस सारंडा के जंगलों में लगातार ऑपरेशन चला रही है। जंगल में रहना अब नक्सलियों के लिए सुरक्षित नहीं बचा है। इस नाबालिग को भी एहसास हो गया कि वह गलत रास्ते पर है। हिंसा और खून-खराबे की दुनिया उसे रास नहीं आई। उसे अपने परिवार, अपने घर और सुकून की ज़िन्दगी की याद आने लगी।

यही वजह है कि मौका मिलते ही उसने इस 'नरक' से निकलने का फैसला किया और मुख्यधारा में लौट आया।

पुलिस ने बढ़ाया मदद का हाथ
झारखंड पुलिस और सीआरपीएफ ने इस सरेंडर को एक बड़ी कामयाबी माना है, लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने एक भटकती हुई ज़िन्दगी बचा ली।
अधिकारियों ने साफ कहा है कि इस बच्चे को जेल नहीं, बल्कि सुधरने और पढ़ने का मौका दिया जाएगा। सरकार की आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति (Surrender Policy) के तहत उसे सारी सुविधाएं मिलेंगी, ताकि वह फिर से एक आम इंसान की तरह इज्जत की ज़िन्दगी जी सके।

एक अपील समाज से
यह घटना सारंडा के उन तमाम परिवारों के लिए एक सबक और उम्मीद है, जिनके बच्चे किसी न किसी वजह से जंगल में भटके हुए हैं। रास्ता अभी बंद नहीं हुआ है। अगर एक नाबालिग वापस आ सकता है, तो बाकी भी हथियार छोड़कर घर लौट सकते हैं।

बंदूक से सिर्फ तबाही आती है, भविष्य नहीं। इस बच्चे की 'घर वापसी' पर हम सबको खुश होना चाहिए और उम्मीद करनी चाहिए कि झारखंड के जंगल जल्द ही बंदूकों से मुक्त होंगे।

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