आधार, वोटर आईडी, राशन को भी स्वीकार करे आयोग, जवाब नहीं था आयोग के पास
नई दिल्ली: बिहार में चुनावी सरगर्मियों के बीच मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा कदम उठाते हुए चुनाव आयोग से कई महत्वपूर्ण सवाल पूछे हैं। 30 जुलाई की समय सीमा से पहले की जा रही इस कवायद को लेकर याचिकाओं के एक समूह की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने आयोग की प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं। यह मामला जहां एक ओर लोगों के नागरिकता और पहचान के दावों पर टिका है, वहीं दूसरी ओर यह इस प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े करता है।
चुनाव आयोग पर सुप्रीम कोर्ट के गंभीर सवाल
कोर्ट ने चुनाव आयोग को इस पर एक विशेष विस्तृत रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया है। आयोग के जवाब के अनुसार, जुलाई की अंतिम सूची को सितंबर में अंतिम रूप दिया जाना था, पर क्या वाकई इतने कम समय में इतना बड़ा काम हो पाएगा, यह अभी तक साफ नहीं है। वहीं, कई याचिकाकर्ताओं द्वारा चुनाव आयोग के आदेश को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए 30 दिनों के भीतर अपनी स्थिति स्पष्ट करने का आदेश दिया है।
कोर्ट ने मुख्य रूप से उन दलीलों पर ध्यान केंद्रित किया है जो कह रही हैं कि विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया मनमानी और पक्षपातपूर्ण है। हालांकि, आयोग की दलीलें ये भी हैं कि वे नियमों के तहत ही काम कर रहे हैं। पर यह प्रश्न उठता है कि यदि इतने कम समय में 8 करोड़ से अधिक लोगों के नामों की जांच की जा रही है, जिसमें आधार, वोटर आईडी, राशन कार्ड जैसे तमाम दस्तावेजों की जांच भी शामिल है, तो फिर जो नियम प्रक्रियागत तौर पर तय हैं, क्या उनका पालन किया जा रहा है?
कानून और नियमों के दायरे में चुनाव आयोग?
वकीलों द्वारा पेश किए गए तर्कों में यह बात सामने आई है कि जिन नियमों के तहत चुनाव आयोग यह काम कर रहा है, उनका स्पष्ट ज़िक्र न तो किसी कानून में है और न ही नियमों में। यह प्रक्रिया इसलिए भी संदिग्ध है क्योंकि इसमें चुनाव से पहले, यानि 2025 में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यह विशेष पुनरीक्षण क्यों चलाया जा रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि चुनाव आयोग यह दावा कर रहा है कि अगर किसी के पास आवश्यक दस्तावेज नहीं हैं, तो भी उसे कई प्रमाण-पत्रों के आधार पर अपनी नागरिकता साबित करने की मोहलत मिल जाएगी।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इस प्रक्रिया पर उचित समय सीमा का पालन नहीं किया गया, तो बड़ी संख्या में योग्य मतदाताओं के नाम सूची से कट सकते हैं। इसमें विशेष रूप से वे लोग शामिल हो सकते हैं जो देश के अलग-अलग हिस्सों में रहकर काम कर रहे हैं और जिनकी पहचान और निवास स्थान के दस्तावेज ठीक से मौजूद नहीं हैं।
न्यायपालिका की भूमिका और जवाबदेही
जहां एक ओर कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसी सूची में नाम न होने के बावजूद उसे दोबारा जुड़वाने की प्रक्रिया के लिए आवेदन किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर सत्ता पक्ष की दलीलों को सिरे से खारिज करते हुए कुछ नेता यह भी कह रहे हैं कि यदि किसी की नागरिकता पर सवाल उठते हैं तो आधार या किसी अन्य नागरिकता संबंधी दस्तावेज से उसे साबित करने की उसकी स्वतंत्रता का हनन नहीं किया जाना चाहिए। यह सारी स्थितियां उन सवालों को गहरा करती हैं कि क्या वास्तव में इस पूरी प्रक्रिया का मकसद मतदाता सूची को अधिक समावेशी बनाना है या फिर किसी विशेष वोट बैंक को निशाना बनाना। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला इस मामले में क्या आता है।
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