Jharkhand : दिशोम गुरु का सफर, शिबू सोरेन को मिली उपाधि के पीछे की कहानी

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News India Live, Digital Desk: झारखंड के राजनीतिक परिदृश्य में एक ऐसा नाम जो हमेशा सम्मान से लिया जाता है, वह है शिबू सोरेन, जिन्हें प्यार से 'दिशोम गुरु' भी कहा जाता है। 'दिशोम गुरु' का अर्थ है 'भूमि का गुरु' या 'देश का गुरु', और यह उपाधि उन्हें ऐसे ही नहीं मिली। यह उनके जीवन के संघर्षों, आदिवासियों के प्रति उनके समर्पण और उनके नेतृत्व का प्रतीक है।

शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को वर्तमान रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था। एक संथाल आदिवासी परिवार में जन्मे, उनका बचपन मुश्किलों भरा रहा। जब वह महज 13 साल के थे, तब महाजनों द्वारा उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। इस घटना ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। पिता की मृत्यु के बाद परिवार आर्थिक संकट में आ गया था। इन सबके बीच, शिबू सोरेन ने महाजनों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया।

1970 में, उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ धान कटाई आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन ने उन्हें चर्चा में ला दिया, लेकिन महाजनों को अपना दुश्मन बना लिया। उन्हें रास्ते से हटाने के लिए महाजन लोगों का इस्तेमाल करते थे। उस समय, आदिवासियों को जागरूक करने के लिए शिबू सोरेन बाइक से गांव-गांव घूमते थे। इसी दौरान एक ऐसी घटना घटी जिसने उन्हें 'दिशोम गुरु' की उपाधि दिला दी।

एक बार महाजनों के गुंडों ने उन्हें घेर लिया। वह बरकार नदी के पास थे और बारिश के कारण नदी उफान पर थी। शिबू सोरेन को लगा कि अब उनका बचना नामुमकिन है। ऐसे में, उन्होंने बाइक समेत नदी में छलांग लगा दी। सभी को लगा कि वह डूब जाएंगे, लेकिन कुछ देर बाद वे तैरते हुए नदी के दूसरे छोर पर सुरक्षित पहुंच गए। इस घटना को लोगों ने एक चमत्कार माना और तभी से आदिवासियों ने उन्हें 'दिशोम गुरु' कहना शुरू कर दिया। यह उपाधि उनके संघर्ष, नेतृत्व क्षमता और विषम परिस्थितियों से निकलने की उनकी असाधारण क्षमता को दर्शाती है।

शिबू सोरेन सिर्फ एक राजनीतिक नेता नहीं रहे, बल्कि उन्होंने झारखंड राज्य के निर्माण में भी अहम भूमिका निभाई। उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की सह-स्थापना की, जो आदिवासी समुदायों को एकजुट करने और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए जानी जाती है।

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