क्यों एक सूट-बूट पहनने वाला बैरिस्टर सिर्फ एक लंगोटी में रहने लगा? गांधीजी के उस फैसले की कहानी
एक ऐसा इंसान जो लंदन में पढ़ाई के दौरान महंगे सूट-बूट पहनता था, आखिर उसने अपने सारे कपड़े त्याग कर सिर्फ एक लंगोटी पहनना क्यों शुरू कर दिया? यह कहानी है महात्मा गांधी के उस ऐतिहासिक फैसले की, जिसने भारत की आजादी की लड़ाई को एक नई दिशा दी।
वह दिन था 22 सितंबर, 1921। मदुरै में बुनकरों की एक सभा को संबोधित करते हुए गांधीजी ने वह फैसला लिया जो इतिहास बन गया। उन्होंने देखा कि देश में करोड़ों लोग इतने गरीब हैं कि वे विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके महंगी खादी नहीं खरीद सकते। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों को घुटनों तक की एक लंगोटी से ही संतोष करना चाहिए। लेकिन गांधीजी सिर्फ सलाह देने वालों में से नहीं थे, वे जो कहते थे, उसे पहले खुद पर अमल करते थे।
उसी मंच पर उन्होंने घोषणा की कि आज से वे भी सिर्फ एक लंगोटी पहनेंगे और जरूरत पड़ने पर शरीर ढकने के लिए एक चादर का इस्तेमाल करेंगे। यह फैसला अचानक नहीं लिया गया था, इसके पीछे सालों का चिंतन और भारत की गरीबी को करीब से देखने का दर्द छिपा था।
कपड़ों के साथ आत्म-सम्मान का सफर
गांधीजी का कपड़ों से रिश्ता हमेशा उनके आत्म-सम्मान से जुड़ा रहा। दक्षिण अफ्रीका में जब वे एक सफल वकील थे, तो वे सूट-बूट पहनते थे, लेकिन अपने भारतीय होने के सम्मान के प्रतीक के रूप में पगड़ी भी पहनते थे। जब डरबन की अदालत में उनसे पगड़ी उतारने को कहा गया, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। यह पहली बार था जब उन्होंने कपड़ों के जरिए अपने स्वाभिमान की आवाज बुलंद की थी।
भारत लौटने पर उन्होंने धोती-कुर्ता और काठियावाड़ी पगड़ी को अपनाया। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे वे आम लोगों से जुड़ते गए, उनका पहनावा और भी सादा होता गया। उन्होंने 'गांधी टोपी' पहनना शुरू किया, जो इतनी लोकप्रिय हुई कि अंग्रेज सरकार डर गई और अपने कर्मचारियों के इसे पहनने पर रोक लगा दी।
एक लंगोटी का फैसला
गांधीजी का मानना था कि जिस देश में करोड़ों लोगों के पास तन ढकने के लिए पूरे कपड़े न हों, वहां उन्हें भी ज्यादा कपड़े पहनने का कोई हक नहीं है। जब लोग उनसे कहते कि खादी महंगी है, तो उन्हें एहसास हुआ कि सिर्फ भाषण देने से काम नहीं चलेगा। उन्हें खुद एक मिसाल बनना होगा।
इसी सोच के साथ 22 सितंबर, 1921 को उन्होंने अपने कपड़े हमेशा के लिए त्याग दिए। शुरुआत में यह संकल्प सिर्फ एक महीने के लिए था, लेकिन बाद में उन्होंने इसे जीवन भर के लिए अपना लिया।
जब 'आधे नंगे फकीर' ने दुनिया को झुकाया
1931 में जब गांधीजी गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन गए, तो कड़ाके की ठंड में भी वे उसी लंगोटी और चादर में थे। ब्रिटिश नेता विंस्टन चर्चिल ने उनका मजाक उड़ाते हुए उन्हें 'अधनंगा फकीर' कहा। लेकिन गांधीजी पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
सबसे यादगार पल तब आया जब वे ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम से मिलने बकिंघम पैलेस पहुंचे। एक पत्रकार ने हैरानी से पूछा, "आप इतने कम कपड़ों में राजा से मिलने चले आए?"
गांधीजी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "चिंता मत करिए, आपके राजा ने हम दोनों के बराबर के कपड़े पहन रखे थे।"
यह जवाब सिर्फ एक मजाक नहीं था, यह पूरी दुनिया को एक संदेश था कि असली ताकत कपड़ों में नहीं, बल्कि आत्मबल और सादगी में होती है। उनकी लंगोटी सिर्फ एक कपड़ा नहीं थी, वह भारत के करोड़ों गरीबों से उनका जुड़ाव थी, स्वदेशी का प्रतीक थी और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक खामोश लेकिन सबसे ताकतवर हथियार थी।
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