भीष्म पितामह ने बाणों की शैया पर क्यों किया उत्तरायण का इंतज़ार? जानें उनके महाप्रयाण की अद्भुत कहानी
News India Live, Digital Desk: महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह का किरदार कौन भूल सकता है! जिस तरह वे अपने प्रण और प्रतिज्ञा पर अडिग रहे, उसने उन्हें अमर कर दिया. लेकिन एक बात जो कई लोगों को चौंकाती है, वो ये कि जब अर्जुन ने उन्हें बाणों से छलनी कर दिया था, तो भीष्म ने तुरंत अपने प्राण क्यों नहीं त्यागे? वे बाणों की शैया (बिस्तर) पर पड़े-पड़े उत्तरायण (सूर्य के उत्तर दिशा में गमन) का इंतज़ार क्यों करते रहे? आइए जानते हैं इस मार्मिक और रहस्यमयी घटना के पीछे की कहानी.
इच्छा मृत्यु का वरदान और पिता का मोह
असल में, भीष्म पितामह को उनके पिता राजा शान्तनु से "इच्छा मृत्यु" का वरदान मिला था. इसका मतलब था कि वे अपनी इच्छा से ही अपने प्राण त्याग सकते थे. युद्ध के मैदान में बुरी तरह घायल होने के बाद भीष्म के प्राण उनकी इच्छा के विरुद्ध शरीर को नहीं छोड़ सकते थे. महाभारत में वर्णित है कि भीष्म को बाणों से बिंधे देख सभी हैरान थे, यहां तक कि स्वयं श्री कृष्ण भी, कि भीष्म क्यों जीवन को रोके हुए हैं.
उत्तरायण में प्राण त्यागने का महत्व
हिंदू धर्म शास्त्रों में माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति उत्तरायण काल में अपने प्राण त्यागता है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. ऐसे व्यक्ति को स्वर्ग में स्थान मिलता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है. वहीं, यदि कोई दक्षिणायन काल में देह त्यागता है, तो उसे दोबारा जन्म लेना पड़ता है. गंगापुत्र भीष्म एक ज्ञानी और धर्मात्मा पुरुष थे, वे जानते थे कि यदि उन्हें स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करना है, तो उन्हें शुभ उत्तरायण काल में ही अपने प्राणों का त्याग करना होगा.
बाणों की शैया पर किया इंतज़ार
महाभारत के युद्ध में 10वें दिन अर्जुन के तीरों से भीष्म बुरी तरह घायल हो गए थे. वे बाणों से बिंधकर शैया पर लेट गए, लेकिन जीवित थे. सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण वे शुभ घड़ी का इंतज़ार करते रहे. कई दिनों तक वे इसी बाणों की शैया पर लेटे रहे और उन्होंने पांडवों और कौरवों को धर्म और नीति का उपदेश दिया. आखिरकर जब सूर्य ने उत्तरायण में प्रवेश किया, तब माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि (जिसे भीष्म अष्टमी भी कहते हैं) को, भीष्म पितामह ने शांत चित्त से अपने प्राण त्याग दिए. यह उनका अपनी इच्छा से मृत्यु को चुनने का अधिकार था और उन्होंने धर्म तथा मोक्ष की कामना के साथ यह निर्णय लिया.
यह घटना हमें जीवन के साथ-साथ मृत्यु के भी महत्व और धार्मिक मान्यताओं की गहराई को समझने का अवसर देती है. भीष्म पितामह का बाणों की शैया पर लेटे हुए उत्तरायण का इंतज़ार करना उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति, ज्ञान और धर्मपरायणता का प्रतीक बन गया.
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