Upendra Kushwaha's Politics: पहचान तो बनी पर सत्ता का साथ क्यों नहीं मिला

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News India Live, Digital Desk: Upendra Kushwaha's Politics: बिहार की राजनीतिक गलियों में उपेंद्र कुशवाहा एक ऐसा नाम हैं, जिन्हें अपने विशिष्ट सामाजिक आधार और लगातार बदलते राजनीतिक दांव-पेंच के लिए जाना जाता है। उनकी सियासी यात्रा पर गौर करें तो एक बात साफ नज़र आती है: उन्होंने खुद की एक पहचान ज़रूर बनाई है, राजनीतिक हलकों में उनकी बात सुनी जाती है और उनके समर्थक आधार का एक वर्ग भी है, लेकिन बड़े चुनावी मंच पर या सत्ता में स्थायी व ठोस कामयाबी उन्हें अभी तक हासिल नहीं हो पाई है। राष्ट्रीय लोक मोर्चा RLM के झंडे तले वे अपने 'सिलेंडर' में कितना ईंधन बचा पाए हैं, यह बिहार की वर्तमान और भविष्य की राजनीति के लिए एक बड़ा सवाल है।

उपेंद्र कुशवाहा ने अपने राजनीतिक करियर में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। वे कभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन NDA का हिस्सा रहे, तो कभी महागठबंधन Grand Alliance में शामिल हुए, और फिर अपनी राह अलग कर ली। यह निरंतर दल-बदलना उनकी राजनीतिक विचारधारा में स्थिरता पर सवाल ज़रूर खड़े करता है, लेकिन साथ ही उनकी 'पहचान' की राजनीति को भी मज़बूत करता है, जिसमें वे अक्सर एक खास वर्ग के हितों के मुखर पैरोकार के रूप में उभरते हैं। उन्हें एक ऐसे नेता के तौर पर देखा जाता है जो कोइरी/कुशवाहा समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो बिहार में एक महत्वपूर्ण वोटबैंक माना जाता है।

उनकी सबसे बड़ी चुनौती यही रही है कि इस पहचान को वे ठोस चुनावी जीत और सत्ता साझेदारी में कैसे बदलें। बिहार की राजनीति पर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे दिग्गज नेताओं की मज़बूत पकड़ ने अक्सर उनके स्वतंत्र प्रयासों को सीमित किया है। भले ही वे कुछ सीटों पर प्रभाव डालते हों या किसी गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हों, लेकिन अकेले दम पर वे निर्णायक शक्ति के रूप में स्थापित नहीं हो पाए हैं।

उनकी पार्टी, RLM, को एक ऐसे 'सिलेंडर' के रूप में देखा जा रहा है जिसमें ईंधन सीमित है। यानी, यह पार्टी पहचान तो कायम कर चुकी है, लेकिन चुनावी दंगल में सीटों के लिहाज़ से या गठबंधन में मज़बूत सौदेबाजी की शक्ति के तौर पर अभी भी संघर्ष कर रही है। उनके समर्थकों की संख्या कम नहीं है, पर यह वोट अक्सर पूरी तरह से उनकी पार्टी के पक्ष में केंद्रित नहीं हो पाता। कुछ विश्लेषक इसे "वोट कटर" के रूप में भी देखते हैं, जो किसी बड़े दल को फायदा या नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन खुद एक निर्णायक भूमिका में नहीं आ पाता।

अब जब आगामी चुनावों का माहौल गरमा रहा है, तो उपेंद्र कुशवाहा और उनकी RLM की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। क्या इस बार उनके 'सिलेंडर' में पर्याप्त 'गैस' है जो उन्हें चुनावी नतीजों में महत्वपूर्ण अंतर पैदा करने या किसी बड़े गठबंधन का अविभाज्य हिस्सा बनने में मदद करेगा? या यह फिर से पहचान बनाकर भी ठोस कामयाबी से दूर रह जाने वाली उनकी सियासी कहानी का ही एक और अध्याय होगा? इन सवालों का जवाब आने वाला समय ही देगा, जब बिहार की चुनावी तस्वीर और साफ होगी।

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