घर-घर में गूंज उठे हैं छठ के गीत, जानिए 'नहाय-खाय' के साथ कैसे होती है महापर्व की शुरुआत

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दिवाली की रौनक के बाद अब पूरब से लेकर देश के कोने-कोने तक लोकआस्था के महापर्व छठ की तैयारियां अपने चरम पर हैं। आज यानी कार्तिक महीने की चतुर्थी तिथि से चार दिनों की यह कठिन तपस्या 'नहाय-खाय' की परंपरा के साथ शुरू हो रही है।

यह पर्व सिर्फ एक पूजा नहीं, बल्कि पवित्रता, साधना और प्रकृति के प्रति आभार जताने का प्रतीक है। इस व्रत की नींव इसका पहला दिन यानी 'नहाय-खाय' ही रखता है, जिसके बाद व्रती लगभग 36 घंटों का दुनिया का सबसे कठिन निर्जला (बिना पानी के) उपवास शुरू करते हैं। चलिए, जानते हैं कि आखिर क्या है नहाय-खाय और क्यों इसके बिना छठ पूजा अधूरी मानी जाती है।

तो आखिर क्या है 'नहाय-खाय'?

जैसा कि नाम से ही साफ है, यह दो शब्दों से मिलकर बना है- 'नहाय' (यानी स्नान करना) और 'खाय' (यानी खाना)।
इस दिन व्रती (व्रत रखने वाले) सुबह-सुबह गंगा या किसी अन्य पवित्र नदी-तालाब में जाकर डुबकी लगाते हैं। स्नान के बाद साफ-सुथरे कपड़े पहनकर घर लौटते हैं और फिर शुरू होती है प्रसाद बनाने की तैयारी।

इस दिन का मुख्य प्रसाद होता है कद्दू की सब्जी, चने की दाल और अरवा चावल (भात)। इसे बेहद पवित्रता के साथ, अक्सर मिट्टी के नए चूल्हे पर बनाया जाता है। घर में इस दिन से ही लहसुन-प्याज का इस्तेमाल पूरी तरह बंद हो जाता है। व्रती यही सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं और उनके बाद परिवार के बाकी सदस्य भी इसे प्रसाद के रूप में खाते हैं।

क्यों है यह परंपरा इतनी ज़रूरी?

'नहाय-खाय' सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि इस कठिन व्रत के लिए शरीर, मन और आत्मा को तैयार करने की पहली सीढ़ी है।

  • धार्मिक महत्व: मान्यता है कि इस दिन पवित्र स्नान से तन और मन दोनों शुद्ध हो जाते हैं। सात्विक भोजन आत्मा में पवित्रता लाता है। ऐसा माना जाता है कि 'नहाय-खाय' के बाद व्रती का शरीर एक मंदिर की तरह पवित्र हो जाता है, जिसमें अगले कुछ दिनों के लिए छठी मैया का वास होता है।
  • वैज्ञानिक महत्व: इस परंपरा के पीछे गहरा विज्ञान भी छिपा है। नदी में स्नान करना शरीर को बाहरी रूप से स्वच्छ और संक्रमण-मुक्त करता है। वहीं, कद्दू, चने की दाल और चावल का भोजन पौष्टिकता से भरपूर होता है। यह कॉम्बिनेशन शरीर को प्रोटीन, विटामिन और कार्बोहाइड्रेट देता है, जिससे व्रती को आगे 36 घंटे के कठिन उपवास के लिए ज़रूरी ऊर्जा मिलती है।
  • सामाजिक महत्व: यह परंपरा पूरे परिवार को एक सूत्र में पिरोती है। घर की साफ-सफाई से लेकर प्रसाद बनाने तक, हर कोई मिलकर काम करता है, जिससे आपसी प्रेम और एकता बढ़ती है।

संक्षेप में कहें तो, 'नहाय-खाय' सिर्फ खाना-नहाना नहीं, बल्कि अनुशासन, पवित्रता और भक्ति की उस साधना का आरंभ है, जो छठ महापर्व की आत्मा है।

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