लखनऊ का वो इमामबाड़ा, जिसके आंगन में आज भी बसते हैं परिवार
लखनऊ के दिल, यानी हजरतगंज की चहल-पहल के बीच एक ऐसी ऐतिहासिक इमारत खामोशी से खड़ी है, जो सिर्फ एक मकबरा नहीं, बल्कि एक जीता-जागता मोहल्ला है. इसका नाम है सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा, जिसे अवध के चौथे नवाब अमजद अली शाह के मकबरे के नाम से भी जाना जाता है. यह इमारत एक ऐसी अनोखी कहानी कहती है, जहाँ इतिहास और आज की जिंदगी एक साथ सांस लेती है.
एक बादशाह की आखिरी ख्वाहिश
कहानी शुरू होती है 1847 में, जब नवाब अमजद अली शाह ने अपनी आखिरी आरामगाह और मुहर्रम के आयोजनों के लिए इस इमामबाड़े को बनवाना शुरू किया. दुर्भाग्य से, वह इसे पूरा होते नहीं देख सके और उनके बेटे, अवध के आखिरी नवाब, वाजिद अली शाह, ने इसे मुकम्मल करवाया. इसका नाम पैगंबर मुहम्मद के नवासे, इमाम हसन और हुसैन, जिन्हें प्यार से "सिब्तैन" कहा जाता है, के नाम पर रखा गया. इसकी बनावट बड़े इमामबाड़े से मिलती-जुलती है, इसलिए कुछ लोग इसे "छोटा इमामबाड़ा" भी कह देते हैं.
जब इतिहास बन गया किसी का घर
इस कहानी में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया, जब 1921 में लखनऊ इंप्रूवमेंट ट्रस्ट ने इस शानदार इमारत के विशाल आंगनों के कुछ हिस्से एंग्लो-इंडियन परिवारों को रहने के लिए आवंटित कर दिए. और हैरानी की बात यह है कि आज, 100 साल बाद भी, उन परिवारों के वंशज इसी ऐतिहासिक इमामबाड़े के परिसर में रहते हैं. यह शायद दुनिया की उन गिनी-चुनी जगहों में से है, जहाँ एक तरफ नवाब की कब्र है और दूसरी तरफ लोगों के घरों के दरवाजे खुलते हैं.
गुमनामी से वापसी की कहानी
एक वक़्त ऐसा भी आया जब यह खूबसूरत इमामबाड़ा अनदेखी और उपेक्षा का शिकार होकर अपनी चमक खोने लगा था. इसकी दीवारें कमजोर पड़ने लगीं और इसकी खूबसूरती पर गर्द जम गई. लेकिन तब वकील एस. मोहम्मद हैदर रिज़वी के लगातार प्रयासों ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) का ध्यान इस ओर खींचा. ASI ने इस इमारत को अपनी संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल किया और इसकी मरम्मत कर इसे इसका पुराना गौरव वापस लौटाया.
आज क्या है ख़ास?
आज जब आप इस इमामबाड़े में कदम रखते हैं, तो इसकी दीवारों पर बने खूबसूरत इस्लामी डिज़ाइन और स्टुको (उभरी हुई कलाकृति) आपका मन मोह लेते हैं. इसके अंदर नवाब अमजद अली शाह, उनके पोते मिर्ज़ा जावेद अली, और नवाब वाजिद अली शाह की एक बेगम की कब्रें हैं.
यह इमामबाड़ा अब सिर्फ एक मकबरा नहीं, बल्कि इस बात का सबूत है कि अगर कोशिश की जाए तो मिटती हुई धरोहर को भी फिर से ज़िंदा किया जा सकता है. यह लखनऊ के उस इतिहास का प्रतीक है, जो आज भी धड़कता है और लोगों के बीच बसता है.
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