कभी मुसलमान तो कभी बांग्ला के नाम पर अवैध बांग्लादेशी की बोगस राजनीति कब तक चलेगी
- by Desk Team
- 2025-07-13 10:43:00
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में नागरिकता, राष्ट्रीयता और भाषाई पहचान के मुद्दे पर महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि बंगाली होना बांग्लादेशी होने के समान नहीं है और किसी व्यक्ति को सिर्फ़ बंगाली भाषा बोलने के आधार पर अवैध प्रवासी या बांग्लादेशी कहना अनुचित है। यह टिप्पणी दिल्ली और अन्य स्थानों पर बंगाली समुदाय के लोगों के साथ कथित रूप से हो रहे दुर्व्यवहार और "मिनी बांग्लादेश" जैसे क्षेत्रों से उन्हें 'अवैध घुसपैठिया' बताकर निशाना बनाने के संदर्भ में आई है।
ममता बनर्जी के अनुसार, पश्चिम बंगाल की अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक और भाषाई पहचान है, जिस पर हमला किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि भारत में हिंदी के बाद सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा बंगाली है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके बोलने वालों को अक्सर शक की निगाह से देखा जाता है या उनकी राष्ट्रीयता पर सवाल उठाए जाते हैं। यह स्थिति देश की भाषाई विविधता और समावेशिता के ताने-बाने पर चोट करती है।
हाल की कुछ घटनाओं का उल्लेख करते हुए, विशेषकर दिल्ली की एक बस्ती में हुई कार्रवाई, यह बताया गया कि कैसे स्थानीय पुलिस और प्रशासन, वोटिंग अधिकारों को लेकर अक्सर आधार और पैन कार्ड जैसे पहचान पत्रों को नाकाफी बताकर लोगों पर कार्रवाई करते हैं। यह भी सामने आया कि कैसे किसी व्यक्ति के भारत में जन्में होने के बावजूद, उसकी बंगाली पहचान को लेकर उसे अवैध प्रवासी घोषित कर दिया जाता है और नागरिकता के सबूत पेश करने पर भी उनकी सुनवाई नहीं होती। इस तरह के मामलों में महाराष्ट्र में हुई एक घटना का भी ज़िक्र है, जहां मेहेबूब शेख नाम के व्यक्ति को सही कागजात होने के बावजूद बांग्लादेश भेज दिया गया था, जिसकी बाद में राज्य सरकार के हस्तक्षेप के बाद वापसी हुई।
इन घटनाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि नागरिकता का मुद्दा कितना संवेदनशील और राजनीतिक रूप से प्रेरित हो सकता है। आरोप हैं कि कुछ राजनीतिक दल अपने एजेंडे के तहत भाषाई और सांस्कृतिक पहचान का इस्तेमाल करके विशिष्ट समुदायों को निशाना बनाते हैं, उन्हें भयभीत करते हैं और उनके अधिकारों को छीनने का प्रयास करते हैं। इन मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और टिप्पणियां भी महत्वपूर्ण हैं, जो दर्शाती हैं कि नागरिकता साबित करने के लिए केवल एक तरह के दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी, जमीन पर हकीकत अक्सर इससे अलग दिखाई देती है, जहां भाषा और संस्कृति के आधार पर लोगों को संदेह के घेरे में डाला जाता है और उन्हें अनावश्यक मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। यह स्पष्ट रूप से बहुलवादी भारतीय लोकाचार के खिलाफ है और एक ऐसी शासन व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाता है जहाँ नागरिकता की पहचान केवल भाषा पर आधारित कर दी जाती है।
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