Potter community : प्लास्टिक ने छीन ली रोटी, मिट्टी ने मोड़ा मुंह, झारखंड के कुम्हारों की दिल दहला देने वाली कहानी

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News India Live, Digital Desk:  दिवाली के दीयों की जगमगाहट हो या गर्मी में मटके का ठंडा पानी, हमारी जिंदगी का एक खूबसूरत हिस्सा उस चाक पर घूमता है, जिसे कुम्हार अपनी उंगलियों से जिंदगी देता है. यह एक कला है, एक परंपरा है, जो पीढ़ियों से चली आ रही है. लेकिन झारखंड में आज यह कला अपनी आखिरी सांसें गिन रही है. जिस चाक ने कभी लाखों परिवारों का पेट पाला, आज उसी पर लाचारी घूम रही है. कुम्हार का बेटा अब कुम्हार नहीं बनना चाहता, और इसके पीछे एक दर्दभरी हकीकत छिपी है.

सबसे बड़ी लड़ाई 'मिट्टी' के लिए

किसी भी कुम्हार के लिए उसकी सबसे कीमती चीज होती है 'चिकनी मिट्टी'. यही वो मिट्टी है जिससे बर्तन में जान आती है. लेकिन आज झारखंड के कुम्हारों के लिए यही मिट्टी सोना हो गई है. कभी जो मिट्टी तालाबों, पोखरों और नदियों के किनारे मुफ्त में मिल जाती थी, आज उसे खरीदना पड़ रहा है.

तालाबों पर निजी अधिकार हो गए हैं, शहरीकरण ने मिट्टी वाली जमीन निगल ली है, और खनन माफियाओं की भी नजर इस पर है. नतीजा यह है कि कुम्हारों को एक ट्रैक्टर मिट्टी के लिए हजारों रुपये चुकाने पड़ रहे हैं, जिससे उनकी लागत कई गुना बढ़ गई है. जब कला का आधार ही खत्म होने लगे, तो भला कला कैसे बचेगी?

प्लास्टिक के आगे 'माटी' ने मानी हार

दूसरी और सबसे बड़ी मार बाजार ने मारी है. सस्ते, सुंदर और टिकाऊ प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों ने मिट्टी के बर्तनों की जगह ले ली है. आज लोग फ्रिज का ठंडा पानी पीना पसंद करते हैं, मिट्टी की सुराही का नहीं. त्योहारों में मिट्टी के दीयों की जगह चाइनीज लाइटों ने ले ली है.

कुम्हार दिन-रात मेहनत करके जो दीये और बर्तन बनाते हैं, उनकी मेहनत की कीमत भी बाजार में नहीं मिलती. दिन भर में 100-200 रुपये कमाना भी मुश्किल हो गया है. लागत बढ़ती जा रही है और मुनाफा घटता जा रहा है.

'पापा, यह काम हमसे नहीं होगा...'

इस कला पर सबसे बड़ा खतरा नई पीढ़ी का इससे मुंह मोड़ना है. जब एक कुम्हार का बच्चा देखता है कि उसके पिता दिनभर मिट्टी में सनकर, धूप में तपकर भी दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाते हैं, तो वह इस पेशे को क्यों अपनाएगा? उसे इस काम में कोई भविष्य नजर नहीं आता.

आज का युवा पढ़-लिखकर शहर में कोई छोटी-मोटी नौकरी करना पसंद करता है, लेकिन अपने पुश्तैनी काम को आगे नहीं बढ़ाना चाहता. उन्हें लगता है कि इस काम में न तो पैसा है और न ही सम्मान. यह एक कड़वा सच है, जिसके कारण यह खूबसूरत कला धीरे-धीरे दम तोड़ रही है.

सरकारी योजनाएं बनती तो हैं, लेकिन इन जरूरतमंद कारीगरों तक पहुंच नहीं पातीं. इन्हें आज आधुनिक चाक, बेहतर बाजार और अपनी कला के लिए एक पहचान की जरूरत है. अगर समय रहते इन्हें नहीं संभाला गया, तो वह दिन दूर नहीं जब हम मिट्टी के बर्तनों की सोंधी खुशबू और दीयों की पवित्र रोशनी को सिर्फ कहानियों और तस्वीरों में ही याद करेंगे.

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