यह महल नहीं, अकाल में भूखों को रोटी देने का जरिया था!

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लखनऊ की शान, बड़ा इमामबाड़ा सिर्फ एक खूबसूरत ऐतिहासिक इमारत नहीं है, बल्कि यह एक बादशाह की रहमदिली की वो कहानी है, जिसे सुनकर किसी का भी दिल भर आए. यह उस दौर में बनी, जब लोग दाने-दाने को मोहताज थे, और इसका हर पत्थर उस वक्त की गवाही देता है.

आज लोग इसे इसकी भूलभुलैया के लिए जानते हैं, लेकिन इसकी असली कहानी इससे कहीं ज़्यादा बड़ी और गहरी है.

जब बादशाह ने महल नहीं, लोगों का पेट भरने की सोची

यह बात 1785 की है, जब अवध में एक भयानक अकाल पड़ा. लोग भूख से मर रहे थे और चारों तरफ हाहाकार मचा था. उस वक्त अवध के नवाब थे आसफुद्दौला. वह चाहते तो खजाना लुटाकर लोगों की मदद कर सकते थे, लेकिन उन्होंने लोगों के स्वाभिमान को ज़िंदा रखने का फैसला किया.

उन्होंने एक अनोखा "काम के बदले अनाज" अभियान शुरू किया और इस विशाल इमामबाड़े का निर्माण शुरू करवाया. कहते हैं, दिन में आम मजदूर और गरीब लोग इमारत बनाते थे और रात में रईस और खानदानी लोग उसी बनी हुई दीवार को थोड़ा गिरा देते थे, ताकि किसी के पास भी काम की कमी न हो और यह सिलसिला सालों तक चलता रहे. यही वो दौर था जब लखनऊ में यह कहावत मशहूर हुई- "जिसे न दे मौला, उसे दे आसफुद्दौला."

इंजीनियरिंग का वो जादू, जो आज भी है एक पहेली

यह इमामबाड़ा अपनी बनावट के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है.

इमारत के अंदर छिपे और भी राज़

आज यह इमामबाड़ा शिया मुस्लिमों के लिए मुहर्रम के दौरान मातम (अजादारी) करने का एक महत्वपूर्ण केंद्र है. यह इमारत सिर्फ लखनऊ की शान नहीं, बल्कि इंसानियत की एक ऐसी मिसाल है जो हमें सिखाती है कि एक शासक का असली धर्म अपनी प्रजा की सेवा करना है.

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