बिहार चुनाव: बीजेपी ने खेला बड़ा दांव, हर सीट पर नजर रखने के लिए उतारे 45 'स्पेशल' नेता
जैसे-जैसे बिहार में विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आ रहा है, सियासी गलियारों में हलचल तेज हो गई है। एनडीए गठबंधन में साथ मिलकर चुनाव लड़ने की तैयारी तो है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इस बार कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहती। पार्टी ने अपनी जमीनी पकड़ को और भी मजबूत करने के लिए एक बड़ी और सोची-समझी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है।
खबर है कि भाजपा ने राज्य में 45 खास नेताओं की एक टीम तैयार की है, जिन्हें चुनावी रण में उतारा गया है। ये नेता सिर्फ़ दौरे ही नहीं करेंगे, बल्कि ज़मीन पर रहकर पार्टी के लिए काम करेंगे।
कौन हैं ये 45 लोग और क्या है इनका काम?
इन 45 नेताओं को 'प्रवास प्रमुख' नाम दिया गया है। 'प्रवास' का मतलब ही है कि ये नेता अपने घर पर नहीं, बल्कि उन चुनाव क्षेत्रों में रहेंगे जिनकी जिम्मेदारी उन्हें दी गई है।
इनका मिशन बिल्कुल साफ है:
- जमीन पर रहना: हर नेता को महीने में कम से कम 15 से 20 दिन अपने निर्धारित क्षेत्र में ही बिताना होगा। वो वहां सिर्फ मेहमान बनकर नहीं, बल्कि एक स्थानीय कार्यकर्ता की तरह रहेंगे।
- बूथ को मजबूत करना: भाजपा की रणनीति हमेशा से "बूथ जीतो, चुनाव जीतो" रही है। ये नेता इसी मंत्र पर काम करेंगे। वे हर बूथ पर जाकर देखेंगे कि पार्टी की टीम तैयार है या नहीं, और अगर नहीं है, तो उसे तुरंत तैयार करेंगे।
- कार्यकर्ताओं से सीधा संपर्क: इनका काम पटना या दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं तक स्थानीय कार्यकर्ताओं और लोगों की आवाज को सीधे पहुंचाना है। इससे कार्यकर्ताओं का जोश भी बढ़ेगा और जमीन की सही रिपोर्ट ऊपर तक पहुंचेगी।
- माहौल को समझना: ये नेता उस क्षेत्र के सामाजिक समीकरणों को समझेंगे, लोगों की समस्याओं को सुनेंगे और चुनाव जीतने के लिए सही रणनीति बनाने में मदद करेंगे।
इस रणनीति का मतलब क्या है?
इसका मतलब साफ है कि बीजेपी सिर्फ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जेडीयू के सहारे नहीं बैठना चाहती। वह अपनी ताकत पर, अपने संगठन के दम पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना चाहती है تاکہ गठबंधन में उसकी स्थिति और भी मजबूत हो। यह बीजेपी के चुनावी माइक्रो-मैनेजमेंट का एक बेहतरीन उदाहरण है, जहां हर एक सीट और हर एक बूथ पर बारीक नजर रखी जा रही है।
संक्षेप में कहें तो बीजेपी ने अपनी एक 'स्पेशल फोर्स' बिहार के कोने-कोने में तैनात कर दी है ताकि चुनाव के नतीजों में कोई 'अगर-मगर' की गुंजाइश ही न बचे।
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