सिकंदरबाग: जहाँ मोहब्बत की निशानी को खून से रंग दिया गया

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लखनऊ के दिल हजरतगंज की दौड़ती-भागती जिंदगी के बीच, सिकंदरबाग एक शांत, हरे-भरे सुकून की तरह लगता है. पहली नज़र में यह किसी राजा-रानी के प्यार की कहानी सुनाता एक खूबसूरत बाग नज़र आता है. लेकिन इसकी खामोशी में 2000 से ज़्यादा हिंदुस्तानी सिपाहियों की चीखें दफन हैं, और इसकी मिट्टी आज भी उस दिन को याद करती है जब मोहब्बत की इस निशानी को खून से रंग दिया गया था.

एक बादशाह का अपनी बेगम के लिए तोहफा

यह कहानी शुरू होती है अवध के आखिरी नवाब, वाजिद अली शाह से. उन्होंने अपनी सबसे प्रिय बेगम, सिकंदर महल, के लिए इस बाग को बनवाया था. यह सिर्फ एक बाग नहीं, बल्कि धरती पर एक छोटा सा स्वर्ग था, जिसमें एक शानदार विला और तीन गुंबदों वाली एक खूबसूरत मस्जिद थी. नवाब ने इसे अपनी बेगम के लिए एक तोहफे के तौर पर बनाया था, जहाँ सुकून और इश्क के पल बिताए जा सकें.

जब इश्क का बाग बना आजादी का किला

लेकिन इस बाग की किस्मत में कुछ और ही लिखा था. 1857 में जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई की आग भड़की, तो लखनऊ के सिपाहियों के लिए यही खूबसूरत बाग सबसे महफूज़ पनाहगाह बन गया. इश्क का यह बाग, आजादी की लड़ाई का किला बन गया, और इसकी दीवारें हिंदुस्तानी जांबाजों का हौसला बन गईं.

इतिहास का वो सबसे खूनी दिन

16 नवंबर, 1857. यह तारीख सिकंदरबाग के इतिहास का सबसे काला दिन है. सर कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने इस बाग पर धावा बोल दिया. बाग के अंदर मौजूद 2000 से ज़्यादा हिंदुस्तानी सिपाहियों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी, लेकिन अंग्रेज तोपों के सामने वे ज़्यादा देर टिक नहीं सके.

अंग्रेजों ने बाग की दीवारें तोड़ीं और अंदर घुसकर इतिहास का सबसे खूनी और दर्दनाक कत्लेआम किया. एक भी सिपाही को ज़िंदा नहीं छोड़ा गया. कहते हैं कि लड़ाई खत्म होने के बाद बाग में लाशों के ढेर लग गए थे.

उदा देवी: बहादुरी की अमर कहानी

लेकिन इस कहानी में सिर्फ दर्द नहीं, बेमिसाल बहादुरी भी है. इसी लड़ाई में उदा देवी नाम की एक दलित वीरांगना ने वो कर दिखाया जिसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. अंग्रेजों को बाग में घुसता देख, उदा देवी पुरुषों के कपड़े पहनकर एक ऊंचे पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं और वहां से दर्जनों अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. जब तक अंग्रेजों को समझ आता कि हमला कहाँ से हो रहा है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. अंत में, गोलियों से छलनी होकर वह वीरगति को प्राप्त हुईं, लेकिन उनकी हिम्मत आज भी अमर है.

आज सिकंदरबाग सिर्फ एक बाग नहीं है. यह एक स्मारक है, एक तीर्थ है. यहाँ की हर पत्ती, उन 2000 कुर्बानियों की कहानी कहती है, जिन्होंने अपनी मिट्टी की आज़ादी के लिए हँसते-हँसते जान दे दी.

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