Uttarakhand Tragedy: धराली में सैलाब का जिम्मेदार कौन, तीखी ढलान और मानवीय भूलों का गणित

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News India Live, Digital Desk: Uttarakhand Tragedy: धराली गांव में हुई भीषण तबाही को लेकर वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की अलग-अलग राय सामने आ रही है। हालांकि शुरुआती तौर पर इसे बादल फटना माना गया था, लेकिन अब कई तथ्य यह संकेत दे रहे हैं कि यह घटना केवल बादल फटने की वजह से नहीं हुई। भूवैज्ञानिकों और मौसम विभाग के विश्लेषण के अनुसार, तबाही के पीछे कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं, जिनमें ग्लेशियर डिपॉजिट का टूटना, तेज ढलान वाले क्षेत्रों से मलबा आना और नदी के रास्ते का अनियमित होना शामिल है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, धराली गांव से लगभग सात किलोमीटर ऊपर, समुद्र तल से करीब 6,700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर डिपाजिट (ग्लेशियर द्वारा जमा की गई तलछट) का एक बड़ा हिस्सा अचानक टूट गया। इस टूटे हुए मलबे की मोटाई लगभग 300 मीटर और क्षेत्रीय विस्तार 1.12 वर्ग किलोमीटर था। इसके साथ ही, मध्यवर्ती नाला चैनल की तीव्र ढलान ने इस मलबे के वेग को और बढ़ा दिया, जिससे यह मलबा तेजी से घाटी की ओर बढ़ा और धराली गांव में भयंकर तबाही मचाई। इस प्रकार के मलबे के प्रवाह को भूवैज्ञानिकों ने 'ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड' (GLOF) या ग्लेशियर के टूटने से जोड़कर देखा है, जो किसी छोटे बादल फटने की घटना से कहीं अधिक विनाशकारी हो सकता है।

तबाही की एक अन्य महत्वपूर्ण वजह पहाड़ों की तीखी ढलान है, जिसकी वजह से बारिश या मलबा आने पर पानी की गति अत्यधिक तेज हो जाती है, जिससे वह अपने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को तबाह कर देता है। भूविज्ञान के अनुसार, नदी के मोड़ पर कॉनवेक्स (उत्तल) साइड पर पानी का दबाव और कटाव कॉनकेव (अवतल) साइड की तुलना में बहुत अधिक होता है। धराली के मामले में भी नदी के कॉनवेक्स साइड में ही अधिक विनाश हुआ, जबकि कॉनकेव साइड के घर सुरक्षित रहे। यह दर्शाता है कि नदी का मार्ग और उसकी अपनी बनावट भी आपदा की तीव्रता में एक बड़ी भूमिका निभाती है।

इसके अलावा, उत्तरकाशी और खास तौर पर धराली क्षेत्र का भूगर्भीय ढांचा भी चिंता का विषय है। इस क्षेत्र में 54 करोड़ साल पुरानी ढीली मिट्टी मौजूद है, और जिस ढलान पर धराली बसा है, वहां पेड़ों की संख्या भी कम है। ऐसे में, लगातार या तेज बारिश होने पर पहाड़ों का कटना और पानी के साथ मलबा बहना सामान्य है। यह भी एक चिंताजनक तथ्य है कि धराली क्षेत्र मूल रूप से एक फ्लडप्लेन (बाढ़ का मैदान) रहा है, जहाँ 1835 में भी इसी तरह की भीषण बाढ़ आई थी। इसके बावजूद, लोगों ने इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में निर्माण कार्य, जैसे होटल और होमस्टे, किए, जो आपदा को न्योता देने जैसा था। जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप, जैसे कि निर्माण और डी-फोरेस्टेशन (वनों की कटाई), ने इस तरह की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता को बढ़ाया है।

भारतीय भूवैज्ञानिकों द्वारा साझा की गई सेटेलाइट तस्वीरों और विश्लेषणों से यह भी पता चला है कि जिस समय यह आपदा आई, उस समय भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार प्रभावित क्षेत्रों में न्यूनतम वर्षा दर्ज की गई थी, जो आमतौर पर बादल फटने की स्थिति से मेल नहीं खाती। इस कारण, विशेषज्ञों का मानना है कि किसी हिमनदी या हिम झील (Glacial Lake) का टूटना, न कि केवल बादल फटना, इस भीषण विनाश का प्राथमिक कारण हो सकता है।

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