“श्री रामचरितमानस में निहित हैं मित्रधर्म के गुण-दोष”

0897bc3ce22756e2a0e75efea889c30c
मित्रता के नाम पर हिन्दुओं को सदियों से लोगों ने डसा है और अब ग्लोबल फोर्सेस डस रही हैं। मित्रता के नाम पर मुसलमानों और ईसाईयों के साथ मिलकर अपने ही तथाकथित सेक्यूलरों ने हिन्दुओं को लूटा, वहीं पाकिस्तान, चीन और अमेरिका जैसे देशों ने रह – रह कर हिन्दुओं की पीठ में छुरा भोंका है। इसलिए हिन्दुओं को मित्रता के गुण धर्म समझने ही होंगे नहीं तो वो सदैव मकड़जाल में फंसते रहेंगे।

मित्रता को लेकर कल्चरल मार्क्सिज्म, पश्चिमी जगत और ग्लोबल फोर्सेस के क्या मायने रहे हैं? तो आप पाएंगे कि मित्रता के नाम पर इन्होंने दुनिया में फूट डालो राज्य करो की नीति अपनाई और तो और अपनों को ही लूट लिया फिर आपस में दो विश्व युद्धों में लड़ मरे। अधिकांशतः शोषण, धोखा, फरेब, अमानत में खयानत और मतांतरण इनकी मित्रता के आदर्श हैं। अब 2011 से 30 जुलाई को इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे मनाने का उपक्रम चालू हुआ और 4 अगस्त को भारत में मनाया जाने वाला है। मुझे इसमें कोई अभिरुचि नहीं है परंतु इनकी चपेट में पुनः भारत न फंसे इसलिए मित्रता पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। मित्रता के दो महान् आदर्श क्रमशः मानव स्वरुप में भगवान् श्रीराम और भगवान् श्रीकृष्ण हैं। दोनों ने मित्रता के महान् आदर्श स्थापित किए हैं, जो मार्गदर्शी और अनुकरणीय हैं।

परंतु सच्चे और कुटिल मित्र की पहचान होना अति आवश्यक है। श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अच्छे मित्र के गुणों पर प्रकाश डाला है। भगवान श्रीराम ने बानरराज सुग्रीव को सन्मित्र के गुण-धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि :-

” जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी।

तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

निज दुःख गिरी सम रज करी जाना।मित्रक दु:ख रज मेरु समाना॥”

भावार्थ : जो लोग मित्र के दुःख से दु:खी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है | अपने पर्वत के समान विकराल दुःख को धूल के कण के समान छोटा और मित्र के धूल के कण के समान तुच्छ दुःख को भी सुमेरु पर्वत के समान बड़ा मानता है वास्तव में वही सच्चा मित्र होता है।

“जिन्ह कें असि मति सहज न आई।

ते सठ कत हठि करत मिताई॥

कुपथ निवारी सुपंथ चलावा।

गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥”

भावार्थ : जो लोग स्वभाव से ही मन्दबुद्धि और मूर्ख होते हैं, ऐसे लोगों को आगे बढ़कर कभी किसी से मित्रता नहीं करनी चाहिए। एक अच्छा मित्र होने के लिए एक बुद्धिमान और विवेकशील मनुष्य होना भी आवश्यक है । इसका तात्पर्य यह है कि एक सच्चे मित्र का धर्म है कि वह अपने मित्र को अनुचित और अनैतिक कार्य करने से रोके, साथ ही उसे सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। उसके सद्गुण प्रगट करे और अवगुणों को छिपाये।

“देत लेत मन संक न धरई।

बल अनुमान सदा हित करई॥

बिपति काल कर सतगुण नेहा।

श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥”

भावार्थ : किसी मनुष्य के पास अपरिमित धन-संपदा हो परन्तु, यदि वह आवश्यकता के समय अपने मित्र के काम ना आए तो सब व्यर्थ है। इसलिए अपनी क्षमतानुसार बुरे समय में अपने मित्र की सहायता करनी चाहिए। एक अच्छे और सच्चे मित्र की यही पहचान है कि वह दुःख और विपत्ति के समय अपने मित्र की समुचित सहायता के लिए सदैव तत्पर रहे। वेदों और शास्त्रों में कहा भी गया है कि विपत्ति के समय और अधिक स्नेह करने वाला ही सच्चा मित्र होता है।

“आगें कह मृदु बचन बनाई।

पाछें अनहित मन कुटलाई॥

जा कर चित अहि गति सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई॥”

भावार्थ : वो मित्र जो प्रत्यक्ष में तो बनावटी मधुर वचन कहता है और परोक्ष में बुराई करता है, जिसका मन साँप की चाल के समान बक्री हो अर्थात् जो आपके प्रति मन में कुटिल विचार और दुर्भावना रखता हो, हे भाई ! ऐसे कुमित्र का परित्याग करना ही श्रेयस्कर कर है।

ईश्वर से प्रार्थना है कि हमारी मित्रता अक्षुण्ण बनी रहे।

उपसंहार :

मैथिलीशरण गुप्त की सुन्दर रचना से –

“तप्त हृदय को , सरस स्नेह से, जो सहला दे , मित्र वही है।

रूखे मन को , सराबोर कर,

जो नहला दे , मित्र वही है।

प्रिय वियोग ,संतप्त चित्त को ,

जो बहला दे , मित्र वही है।

अश्रु बूँद की , एक झलक से ,

जो दहला दे , मित्र वही है।