पहाड़ों का दर्द पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, सरकारों से पूछा गया - आखिर हर साल यह तबाही क्यों?
हर साल मानसून आता है और अपने पीछे हिमाचल और उत्तराखंड में तबाही, टूटे हुए घर और अनगिनत दर्दनाक कहानियाँ छोड़ जाता है। हम सब टीवी पर टूटते हुए पहाड़ और बहती हुई सड़कों के मंज़र देखते हैं, दुखी होते हैं और फिर भूल जाते हैं। लेकिन इस बार, पहाड़ों का यह दर्द देश की सबसे बड़ी अदालत, यानी सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है।
एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, हिमाचल और उत्तराखंड की राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। अदालत ने उन सबसे बुनियादी और तीखे सवालों पर जवाब मांगा है जो आज हर किसी के मन में हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या पूछा?
अदालत का सीधा सवाल है - क्या यह तबाही सिर्फ 'प्राकृतिक आपदा' है या इसके पीछे इंसानी लालच और लापरवाही भी ज़िम्मेदार है? याचिका में कहा गया है कि पहाड़ों की "कैरिंग कैपेसिटी" यानी बोझ सहने की क्षमता का आकलन किए बिना वहां अंधाधुंध निर्माण किया जा रहा है। इसका सीधा मतलब है कि कोई भी पहाड़ी इलाका कितना बोझ (निर्माण, सड़कें, टूरिस्ट) सह सकता है, इस बात को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
अदालत जानना चाहती है कि:
- जलविद्युत परियोजनाओं (Hydropower Projects) और सड़क चौड़ीकरण जैसे कामों के लिए पर्यावरण के नियमों को ताक पर क्यों रखा जा रहा है?
- पहाड़ों की नाजुक पारिस्थितिकी को बचाने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन क्यों नहीं किए जा रहे?
- क्या इन राज्यों के पास आपदा से निपटने की कोई ठोस योजना है भी या नहीं?
यह पहली बार है जब इतने बड़े स्तर पर इस मुद्दे को उठाया गया है, जहाँ सवाल सिर्फ राहत और बचाव का नहीं, बल्कि उस जड़ का है जिसकी वजह से हर साल हज़ारों जिंदगियां दांव पर लग जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पर्यावरण मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय और गृह मंत्रालय समेत कई अन्य विभागों से भी जवाब मांगा है।
सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से एक उम्मीद जगी है कि अब शायद पहाड़ों के दर्द को गंभीरता से सुना जाएगा और भविष्य में ऐसी तबाही को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाएंगे, ताकि अगली बार मानसून सिर्फ राहत लेकर आए, आफत नहीं।
--Advertisement--