हर साल सितंबर महीने से पूरे उत्तर भारत की हवा जहरीली हो जाती है. लोगों का सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है. यह दौर अगले साल जनवरी-फरवरी तक चलता है। इस बीच हवा की गुणवत्ता में सुधार के सारे दावे दम तोड़ देते हैं.
दिवाली के आसपास हवा बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच जाती है. उस समय इस स्थिति से निपटने के लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकारें सक्रिय नजर आती हैं, लेकिन फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर लौट आता है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की एक ताजा रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि सितंबर महीने से खराब हवा का दौर शुरू होने वाला है और इससे एक बार फिर चिंताएं बढ़ने वाली हैं.
इसके मद्देनजर कर्मचारियों की कमी के कारण दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को अप्रभावी घोषित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए जिम्मेदार वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) से सवाल किया कि क्या वे प्रदूषण और पराली जलाने पर लगाम लगानी चाहिए, समस्या से कैसे निपटें? पीठ ने कहा, आज स्थिति यह हो गयी है कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में बड़ी संख्या में पद खाली हैं जिससे वे अप्रभावी हो गये हैं.
इसलिए अगली सुनवाई में सीएक्यूएम के अध्यक्ष को बताना चाहिए कि इस समस्या के समाधान के लिए आयोग क्या कदम उठाने जा रहा है? पीठ ने इस बात पर भी आश्चर्य जताया कि दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में रिक्तियों के कारण सीएक्यूएम के माध्यम से गठित होने वाली सुरक्षा और प्रवर्तन पर उप-समिति कैसे काम करेगी।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से सटे राज्यों को जो छूट दी है वह बिल्कुल सही है क्योंकि राजस्थान बोर्ड में 808 स्वीकृत पदों में से 395 रिक्तियां हैं। दिल्ली बोर्ड के 344 स्वीकृत पदों में से 233 खाली हैं. पंजाब में 652 में से 314 सीटें खाली हैं. हरियाणा में 483 स्वीकृत पदों में से 202 भरे नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश बोर्ड के करीब 350 पद खाली पड़े हैं. ऐसे में यहां के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से क्या उम्मीद की जा सकती है? दरअसल, सरकारी स्तर पर वायु प्रदूषण और पराली के धुएं की समस्या से निपटने के लिए न तो कोई ठोस नीतियां बनाई जा रही हैं और न ही कोई कड़े फैसले लिए जा रहे हैं. इसलिए हर साल इस समस्या पर राजनीति होने लगती है.
राज्य और राजनीतिक दल एक दूसरे को बदनाम करने लगते हैं लेकिन समस्या कई वर्षों से बनी हुई है जिसके कारण हर साल उत्तर भारत के लोग बड़े पैमाने पर पीड़ित होते हैं और स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित होते हैं। त्रासदी यह है कि लोग मर रहे हैं और सरकारी तंत्र सिर्फ तमाशा देख रहा है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि इस मुद्दे पर हर उस व्यक्ति की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की जाए जो इस समस्या के कारणों के लिए जिम्मेदार है।