कुंभ मेला: इतिहास, संघर्ष और सनातन परंपरा की झलक

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प्रयागराज में कुंभ मेला, जिसे सनातन धर्म का सबसे बड़ा आध्यात्मिक उत्सव माना जाता है, सैकड़ों वर्षों से परंपरा और आस्था का केंद्र रहा है। 12 साल के अंतराल पर आयोजित होने वाला यह मेला करोड़ों श्रद्धालुओं और संतों का संगम है, जो गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी संगम में स्नान कर आत्मिक शुद्धि और मोक्ष की कामना करते हैं।

नागा संन्यासियों और कुंभ का महत्व

कुंभ में नागा संन्यासियों की विशेष भूमिका होती है, जिन्हें धर्म का योद्धा माना जाता है। उनका यह संगम सनातन धर्म की शक्ति और परंपरा का अद्भुत प्रदर्शन है। इतिहास गवाह है कि चाहे मुगलों का शासन रहा हो या अंग्रेजों का, कुंभ मेले ने हमेशा इन्हें चुनौती दी है।

मुगल काल में कुंभ पर कर

मुगल बादशाह अकबर ने प्रयागराज के कुंभ मेले पर कर लगा दिया था। यह कर तीर्थयात्रियों से वसूला जाता था। हालांकि, जब हिंदू समाज और संतों ने इसका विरोध किया, तो अकबर को यह कर वापस लेना पड़ा।

अंग्रेजों का कुंभ से खौफ और प्रतिबंध

1857 की क्रांति के बाद, कुंभ मेले में इकट्ठा होने वाली भीड़ ने अंग्रेजों को और अधिक चिंतित कर दिया। उन्होंने मेले पर टैक्स लगा दिया, जो सामान्य व्यक्ति के लिए अत्यधिक था।

  • सवा रुपये का टैक्स: अंग्रेजी शासन ने मेले में शामिल होने पर सवा रुपये का टैक्स लगाया। उस समय एक रुपये में महीने भर का राशन खरीदा जा सकता था। इस टैक्स ने कुंभ में शामिल होना लगभग असंभव बना दिया।
  • 1810 में माघ मेले पर टैक्स: अंग्रेजों ने माघ मेले पर भी टैक्स लगा दिया, जिसका संतों और पंडों ने विरोध किया।

कुंभ की परंपरा और पुनरुत्थान

इतिहासकारों के अनुसार, कुंभ का वृहद् आयोजन राजा हर्षवर्धन के शासन काल में शुरू हुआ। आदि शंकराचार्य ने इसे नई पहचान और स्वरूप दिया। कुंभ मेला आज भी भारतीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक है, जहां देश-विदेश से लोग इस पवित्र आयोजन में हिस्सा लेने आते हैं।

आधुनिक कुंभ की छवि

आज, कुंभ मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का प्रतीक भी है। यह न केवल भारत की आध्यात्मिक विरासत का जश्न है, बल्कि दुनिया को भारतीय संस्कृति की विविधता और गहराई से परिचित कराने का मंच भी है।