Jitiya vrat 2025: सिर्फ भूखे रहने से नहीं, भगवान जीमूतवाहन की यह कथा सुनने से मिलता है संतान को लंबी उम्र का वरदान

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Jitiya vrat 2025: जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत, मां और संतान के अटूट प्रेम और त्याग का सबसे बड़ा पर्व है. इस दिन माताएं अपनी संतान की लंबी आयु, अच्छी सेहत और सुख-समृद्धि के लिए 24 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं. यह व्रत जितना कठिन है, उतना ही इसका महात्म्य भी बड़ा है.

इस व्रत में पूजा-पाठ और नियमों के साथ-साथ एक चीज सबसे ज्यादा जरूरी है, और वो है भगवान जीमूतवाहन की कथा सुनना. मान्यताओं के अनुसार, इस कथा के बिना यह व्रत अधूरा माना जाता है और इसका पूरा फल भी प्राप्त नहीं होता. तो आइए, जानते हैं वो चमत्कारी और अद्भुत कथा, जो इस व्रत की आत्मा है.

जितिया व्रत की पौराणिक कथा (Jitiya Vrat Katha)

बहुत समय पहले की बात है, गंधर्वों के एक राजकुमार थे, जिनका नाम था जीमूतवाहन. वे बहुत ही दयालु, धर्मात्मा और परोपकारी स्वभाव के थे. उन्हें राज-पाट का कोई मोह नहीं था. सब कुछ अपने भाइयों को सौंपकर वे खुद पिता की सेवा करने के लिए वन में चले गए.

एक दिन वन में घूमते हुए उनकी मुलाकात मलयवती नाम की एक राजकन्या से हुई और दोनों में प्रेम हो गया. उसी दौरान जीमूतवाहन ने एक बूढ़ी औरत को बिलख-बिलख कर रोते हुए देखा. उसका दुख देखकर जीमूतवाहन का दिल पसीज गया और उन्होंने उससे रोने का कारण पूछा.

उस बूढ़ी औरत ने बताया कि वह नागवंश की स्त्री है और उसकी एक ही संतान है. पक्षीराज गरुड़ से हुए एक समझौते के तहत, हमारे वंश के नागों को रोज एक-एक करके उनके भोजन के लिए उनके पास जाना पड़ता है. आज मेरे बेटे की बारी है, और मैं उसे कैसे मरने के लिए भेज दूं?

यह सुनकर जीमूतवाहन का हृदय करुणा से भर गया. उन्होंने उस बूढ़ी औरत को वचन दिया, "माता, आप चिंता न करें. आज आपके बेटे की जगह मैं खुद पक्षीराज गरुड़ के पास जाऊंगा."

तय समय पर, जीमूतवाहन खुद उस शिला पर लेट गए जहां पक्षीराज अपना आहार लेने आते थे. जब गरुड़ आए और उन्होंने जीमूतवाहन को अपनी चोंच से नोचना शुरू किया, तो भी वे शांत लेटे रहे. एक इंसान को अपने भोजन के रूप में देखकर और उसके इस साहस को देखकर गरुड़ देव हैरान रह गए. उन्होंने रुककर पूछा, "तुम कौन हो?"

तब जीमूतवाहन ने उन्हें अपना पूरा परिचय दिया और उस बूढ़ी औरत की सारी कहानी सुनाई. एक राजकुमार का ऐसा त्याग और परोपकार देखकर पक्षीराज गरुड़ बहुत प्रभावित और प्रसन्न हुए. उन्होंने न केवल जीमूतवाहन को जीवनदान दिया, बल्कि यह वरदान भी दिया कि आज के बाद वे किसी भी नाग को अपना भोजन नहीं बनाएंगे.

कहा जाता है कि जिस दिन जीमूतवाहन ने अपनी जान जोखिम में डालकर एक माँ के पुत्र की जान बचाई थी, वह अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि थी। तभी से माताएँ अपनी संतान की लंबी आयु और सुरक्षा के लिए इस दिन जितिया व्रत रखने लगीं।

इस कथा को सुनने के बाद ही महिलाएं गले में 'जितिया धागा' पहनकर अपना व्रत पूरा करती हैं. यह कथा हमें सिखाती है कि परोपकार और त्याग से बड़ा कोई धर्म नहीं.

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