सरकार का काम, अडानी का नाम: बिहार में बिजली का ये सौदा आखिर है क्या?

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खबर आई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाने वाले उद्योगपति गौतम अडानी के समूह को बिहार में एक बड़ा बिजली संयंत्र लगाने का ठेका मिला है। पहली नजर में यह एक विकास की कहानी लगती है - बड़ा निवेश, रोजगार के मौके और बिहार को बिजली। लेकिन इस खबर के साथ ही एक पुरानी बहस फिर से खड़ी हो गई है - क्या यह विकास का नया मॉडल है, या देश की संपत्ति को निजी हाथों में सौंपने की एक और कड़ी?

क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है?

आलोचकों का कहना है कि यह सब कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे सैकड़ों साल पहले हुआ था। जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने आई, तो उसने राजाओं को आकर्षक सौदे और सैन्य मदद का लालच दिया। राजाओं ने अपने निजी लाभ के लिए कंपनी को मनमाने ढंग से व्यापार करने की छूट दे दी, लेकिन इस सौदे में प्रजा के हितों का कोई ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह हुआ कि देश 200 साल तक गुलाम रहा।

आज भी कुछ वैसी ही तस्वीर बनती दिख रही है। सरकार का जो काम है, उसे निजी कंपनियों को सौंपा जा रहा है। कांग्रेस का आरोप है कि पहले सरकार ने इस बिजली प्लांट को खुद बनाने की घोषणा की थी, लेकिन अब जमीन से लेकर बिजली बेचने का अधिकार तक, सब कुछ अडानी समूह को दे दिया गया है।

क्या है यह पूरा सौदा?

अडानी समूह बिहार के भागलपुर जिले के पीरपैंती में एक विशाल बिजली संयंत्र लगाएगा। इसके लिए कंपनी ने राज्य सरकार के साथ 25 साल का बिजली आपूर्ति समझौता किया है। कंपनी का दावा है कि इस प्रोजेक्ट में करीब 26,000 करोड़ रुपये का निवेश होगा और 12,000 लोगों को रोजगार मिलेगा। सुनने में यह सब बहुत अच्छा लगता है।

तो सवाल उठता है कि इसमें गलत क्या है?

असली सवाल यह है कि जो काम एक निजी कंपनी कर सकती है, उसे 20 साल से बिहार में और 11 साल से केंद्र में बैठी सरकार खुद क्यों नहीं कर पाई? बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं देना सरकार की पहली जिम्मेदारी है, लेकिन इसे एक चुनावी सौदे की तरह पेश किया जा रहा है। आज शिलान्यास होगा और अगले चुनाव में इसी के नाम पर वोट मांगे जाएंगे।

क्या विकास की कीमत पर्यावरण चुकाएगा?

इस सौदे की कुछ शर्तें और भी चिंताजनक हैं। खबरें हैं कि भागलपुर में करीब 1020 एकड़ जमीन अडानी समूह को 30 साल की लीज पर मात्र एक रुपये में दी गई है। इस जमीन को 'बंजर' बताया गया है, जबकि कहा जा रहा है कि वहां आम और लीची के बागान हैं और प्लांट लगाने के लिए करीब 10 लाख पेड़ काटे जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ के हसदेव के जंगलों की याद ताजा हो जाती है, जिन्हें बचाने के लिए आज भी लड़ाई चल रही है।

विकास जरूरी है, लेकिन किस कीमत पर? क्या यह विकास का ऐसा मॉडल है जहां देश के संसाधन कुछ चुनिंदा हाथों में सौंप दिए जाएं और जनता सिर्फ ग्राहक बनकर रह जाए? यह सवाल आज हर किसी को खुद से पूछना चाहिए, क्योंकि इतिहास गवाह है, जब जनता के हितों को नजरअंदाज किया जाता है, तो उसकी कीमत बहुत बड़ी चुकानी पड़ती है।

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