ब्रह्माण्ड हमारे आने से पहले भी चल रहा था, हमारे जाने के बाद भी चलता रहेगा। यदि संसार का भला करने की इच्छा मन में आये तो सबसे पहला कदम परोपकार का अहंकार त्यागना है। वास्तव में, वह केवल परोपकार नहीं है, बल्कि आप स्वयं पर उपकार कर रहे हैं।
यदि ईश्वर किसी का भला करना चाहता है तो वह किसी को भी निमित्त बना सकता है। यदि ईश्वर ने हमें निमित्त बनाया है तो हमें समझना चाहिए कि यह हमारा सौभाग्य है। हमें ईश्वर का आभारी होना चाहिए कि उसने हृदय में करुणा की भावना पैदा की है जिससे परोपकार की भावना पैदा होती है और पवित्र बनने का अवसर मिलता है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि ‘यह सोचना कि विश्व को हमारी सहायता की आवश्यकता है, ईश्वर की घोर निन्दा या अनादर है।
देखा जाए तो भगवान को हमारी जरूरत नहीं, हमें उनकी जरूरत है।’ दान का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे मन शुद्ध होता है जो आत्म-विकास के लिए आवश्यक है। इसलिए, भगवान का कार्य करने का कोई भी अवसर स्वीकार करना चाहिए।
उसमें अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिए. जिस प्रकार हमें लगता है कि हमने जो कुछ भी अर्जित किया है वह हमारा पुरुषार्थ या भाग्य है, उसी प्रकार यदि हम दान या धन या सहायता के वाहक हैं, तो वह भी किसी का भाग्य है। इसमें हमारी क्या भूमिका है?
हम समुद्र को गहरा पानी देकर कितना खुश कर सकते हैं? अग्नि को यह वरदान प्राप्त है कि वह शुद्ध या अशुद्ध जो भी हो, उसे जला डालती है, वह स्वयं शुद्ध रहती है। इसी प्रकार जब स्वार्थ को त्यागकर शरीर को परमार्थ के लिए समर्पित करने की इच्छा की जाती है तो निश्चित ही उच्च गति प्राप्त होती है। अत: संसार से जो कुछ भी मिले, उसे संसार को दे देना ही सर्वोत्तम है।