संपत्ति के अधिकार: बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को फैसला सुनाया कि अगर पिता की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पहले हो गई थी, तो बेटियों का अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। जस्टिस एएस चंदुरकर और जितेंद्र जैन की पीठ ने 2007 से लंबित एक मामले में यह फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि चूंकि व्यक्ति की मृत्यु 1956 के अधिनियम के लागू होने से पहले हो गई थी, इसलिए उसकी संपत्ति उसकी मृत्यु के समय प्रचलित कानूनों के अनुसार वितरित की गई थी और बेटियों को उस समय उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी।
उल्लेखनीय है कि मुंबई के यशवंतराव की मृत्यु 1952 में हुई थी। उनकी दो पत्नियाँ और तीन बेटियाँ थीं। 1930 में अपनी पहली पत्नी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के बाद यशवंतराव ने भिकूबाई से दूसरी शादी की, जिनसे उनकी एक बेटी चंपूबाई थी। कुछ साल बाद, उनकी पहली शादी से उनकी बेटी राधाबाई ने संपत्ति के बंटवारे की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया, जिसमें उनके पिता की आधी संपत्ति का दावा किया गया। एक ट्रायल कोर्ट ने उनके दावे को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम 1937 के तहत संपत्ति केवल भिकूबाई को विरासत में मिली थी और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत 1956 में वह इसकी वारिस बन गईं।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने 1956 से पहले के कानूनों के संदर्भ में उत्तराधिकार अधिकारों पर विचार करने की आवश्यकता पर बल दिया। पीठ ने कहा, “हमें यह तय करने के लिए समय में पीछे जाना पड़ा कि क्या एक बेटी जिसकी माँ विधवा है और जिसका कोई अन्य रिश्तेदार नहीं है, उसे 1956 से पहले कोई उत्तराधिकार अधिकार होगा।” अदालत ने कहा कि हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 बेटियों को उत्तराधिकार का अधिकार नहीं देता है क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से केवल बेटों का उल्लेख है। अदालत ने यह भी माना कि अगर कानून में बेटियों को शामिल करने का इरादा होता, तो ऐसा स्पष्ट रूप से किया जाता। पीठ ने कहा कि 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, जिसमें बेटियों को प्रथम श्रेणी के वारिस के रूप में शामिल किया गया है, पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं होता है।