ईश्वर का अंश होने के कारण जीव का स्वरूप भी वही

11 12 2024 Rishma 9432916
गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है, ‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी।’ अर्थात जीव ईश्वर का अंश है इसलिए अविनाशी है। ईश्वर का अंश होने के कारण जीव का स्वरूप भी वही है। वह प्राणी जो आत्म-ज्ञान से संपन्न है, मुक्त कहलाता है। जीव और ईश्वर एक शरीर में कर्ता और नियंत्रक के रूप में स्थित हैं।

ऐसा समझें कि शरीर एक वृक्ष है। इसमें जीवा और ईश्वर नाम के दो पक्षी घोंसला बनाकर रहते हैं। वे दोनों सचेत हैं और साथ रहने में सक्षम हैं और कभी अलग नहीं होते। उनके निवास का कारण केवल लीला ही है। इतना ही समान होने से जीव शरीर रूपी वृक्ष के फलों, सुख व दुःखों का भोग करता है, परन्तु ईश्वर उनसे उदासीन होकर केवल साक्षी मात्र रहता है। अभोक्ता होने के कारण ईश्वर, ज्ञान, सम्मान, आनन्द और क्षमता आदि भोक्ता से बढ़कर हैं।

धीर-सन्तोषी मनुष्य अपने को कर्ता नहीं मानता और सभी वस्तुओं तथा कर्मफलों से पृथक रहता है। विद्वान पुरुष प्रकृति में उसी प्रकार आसक्ति से मुक्त रहते हैं जैसे आकाश छः से, सूर्य जल से और वायु गंध से। वह लोगों के कष्ट या अपने शरीर की पूजा करने से न तो दुःखी होता है और न ही प्रसन्न होता है। जो विद्वान तो है परंतु उसे ईश्वर का ज्ञान नहीं है, वह बिना दूध वाली गायों का चरवाहा है। मनुष्य को आत्मा से संबंधित सभी भ्रमों को दूर कर ईश्वर में ध्यान लगाना चाहिए।