कुंभ मेले की पवित्रता और उसके धार्मिक महत्व को जानने वाले बहुत कम लोग यह जानते हैं कि भारत के इतिहास में ऐसे भी समय आए जब इस मेले पर प्रतिबंध लगाया गया। खासतौर पर 1942 और 1858 के कुंभ मेले में श्रद्धालुओं के आने पर रोक लगाई गई थी। इन प्रतिबंधों के पीछे अलग-अलग कारण और परिस्थितियां थीं, लेकिन दोनों ही समय भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा था।
1942 का कुंभ: द्वितीय विश्व युद्ध और आजादी की लड़ाई का प्रभाव
1942 का कुंभ मेला उस समय की असामान्य परिस्थितियों का शिकार हो गया। यह वह दौर था जब दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झुलस रही थी और भारत में अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन जोर पकड़ रहा था।
अंग्रेजों का तर्क: युद्ध का खतरा
अंग्रेजों ने कुंभ मेले पर प्रतिबंध का एक प्रमुख कारण यह बताया कि जापान द्वारा इलाहाबाद (अब प्रयागराज) पर बम गिराए जाने की आशंका थी।
- इलाहाबाद जाने वाली ट्रेनों और अन्य परिवहन साधनों की कड़ी जांच की जाने लगी।
- यात्रियों को जबरन वापस भेजा गया, जिससे मेले में भीड़ कम हो सके।
- अफवाह थी कि जापानी विमान प्रयागराज पर हमला कर सकते हैं, और मेला स्थल को निशाना बनाया जा सकता है।
स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा दूसरा पहलू
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस प्रतिबंध का एक अन्य कारण भारत छोड़ो आंदोलन था।
- कुंभ मेला स्वतंत्रता सेनानियों के मिलने का एक बड़ा केंद्र बन गया था।
- अंग्रेजों को डर था कि कुंभ में आए लोग आंदोलन में शामिल होकर इसे और तेज कर सकते हैं।
- फिर भी, कुछ श्रद्धालु कम संख्या में मेले में पहुंचे और धार्मिक परंपराओं का निर्वाह किया।
1858 का कुंभ: 1857 के विद्रोह का प्रभाव
1858 का कुंभ मेला भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) के तुरंत बाद आयोजित होना था। यह मेला भी ऐतिहासिक घटनाओं और उथल-पुथल का साक्षी बना।
विद्रोह और दमन की छाया
- 1857 के विद्रोह के दौरान इलाहाबाद विद्रोह का एक बड़ा केंद्र था।
- मौलाना लियाकत अली के नेतृत्व में विद्रोहियों ने इलाहाबाद में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी थी।
- विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने कई क्रांतिकारियों को फांसी दी और इलाके में दमनकारी गतिविधियों को तेज कर दिया।
कुंभ मेले पर प्रतिबंध
1858 का कुंभ मेला उस समय के अशांत माहौल के कारण प्रतिबंधित कर दिया गया।
- किले के आसपास और मेला क्षेत्र में श्रद्धालुओं की जगह सेना के तंबू लगाए गए थे।
- स्थानीय लोगों को भी मेला क्षेत्र में जाने की अनुमति नहीं थी।
धार्मिक परंपराओं का निर्वाह
1858 के कुंभ में धार्मिक गतिविधियां पूरी तरह से रोक दी गई थीं। इसके बावजूद, श्रद्धालुओं और तीर्थ पुरोहितों ने परंपराओं का पालन करने का एक अनूठा तरीका खोज लिया।
- कुछ तीर्थ पुरोहित संगम से जल लोटे में भरकर लाते और उसे दारागंज में गंगा में मिलाते।
- स्थानीय लोगों ने इसी जल का उपयोग धार्मिक स्नान के लिए किया।
मेले पर प्रतिबंध का सामाजिक और ऐतिहासिक प्रभाव
- 1942 का कुंभ: द्वितीय विश्व युद्ध और स्वतंत्रता आंदोलन के कारण यह मेला राजनीतिक महत्व का केंद्र बन गया।
- 1858 का कुंभ: 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों के दमनकारी रवैये का शिकार हुआ।
इन घटनाओं ने यह दिखाया कि कुंभ जैसे धार्मिक आयोजन भी राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से अछूते नहीं रहते।