भारतवर्ष देवी-देवताओं के अवतारों की भूमि रही है। ईस्वी सन् 2024 से 2531 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर शक संवत् 2631 वैशाख शुक्ल पंचमी, रविवार तदनुसार ईसा पूर्व 507 में भारत की पवित्र भूमि पर केरल राज्य के एर्नाकुलम जिलांतर्गत काल्टी गांव में एक ऐसी महान विभूति का अवतार हुआ, जिनकी प्रसिद्धि विश्व स्तर पर सार्वभौम धार्मिक गुरु आदिशंकराचार्य के रूप में हुई। उनके पिता शिवगुरु एवं माता आर्याम्बा की कोई संतान नहीं थी। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने स्वयं उन्हें उनके पुत्र के रूप में अवतार लेने का वरदान दिया। इसी कारण इनका नाम शंकर रखा गया था।
यह एक विडंबना ही है कि अनेक ग्रंथों तथा घटनाक्रमों के आधार पर शिवावतार भगवत्पाद आदिशंकराचार्य महाभाग का अवतार यद्यपि ईसा पूर्व 507 वर्ष सिद्ध है, तथापि विदेशी षड्यंत्र के अंतर्गत इसे विवादित बना दिया गया। किसी भी देश के इतिहास में उसके पूर्वजों की उपलब्धियों का भी सविस्तार उल्लेख होता है, जो वहां के लोगों के लिए प्रेरणास्रोत तथा गौरव का आधार बनता है। किंतु भारत में सदियों तक आक्रांता मुगलों तथा अंग्रेजों का शासन रहा। इन शासकों ने यहां की संस्कृति, परंपरा तथा गौरवशाली अतीत को नष्ट करने तथा अपने अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए यहां के गौरवमय इतिहास को नष्ट करते हुए इसे गलत ढंग से तैयार करवाया। शिवावतार भगवत्पाद आदिशंकराचार्य महाभाग के अवतारकाल के साथ भी ऐसा ही हुआ। ईसा मसीह के जन्म के पूर्व किसी सार्वभौम धार्मिक गुरु होने की सच्चाई को अंग्रेज आत्मसात नहीं कर सके। अतः षडयंत्रपूर्वक आदिशंकराचार्य महाभाग के अवतारकाल को ईसा पूर्व 507 वर्ष की जगह आठवीं शताब्दी प्रचारित-प्रसारित करवा दिया गया। परिणाम यह हुआ कि भारत के तथाकथित शिक्षित महानुभव एवं शिक्षण संस्थाएं भी अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को न समझकर आदि शंकराचार्य महाभाग के अवतारकाल को आठवीं शताब्दी मानने के पूर्वाग्रह से ही ग्रस्त हैं।
ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्री गोवर्द्धनमठ पुरी के वर्तमान 145वें श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य महाभाग ने लगभग 1,100 पृष्ठों में विरचित ‘शिवावतार भगवत्पाद आदिशंकराचार्य’ नामक ग्रंथ में आदिशंकराचार्य के अवतारकाल के संबंध में ग्रंथों, घटनाओं एवं मान्यताओं का विस्तृत वर्णन करते हुए आदिशंकराचार्य महाभाग का अवतार ईसा पूर्व 507 वर्ष प्रमाणित किया है। उन सबका उल्लेख तो इस लेख में संभव नहीं है, तथापि पाठकों की जिज्ञासा की शांति एवं तथ्य की प्रामाणिकता के लिए कुछ प्रमाणों को यहां संक्षेप में सूत्रशैली में प्रस्तुत किया जा रहा है।
बृहच्छंकरविजय के अनुसार आदिशंकराचार्य के गुरुदेव यतीन्द्र श्रीगोविंदपद्मपादाचार्य भगवत्पाद का देहावसान युधिष्ठिर शक 2646, प्लवंग संवत्सर, कार्तिक पूर्णिमा, बृहस्पतिवार को हुआ था। अतः आदिशंकराचार्य का अवतार तथा संन्यास ग्रहण युधिष्ठिर शक 2646 के पूर्व ही होना सुनिश्चित है। अतएव उनका अवतार ईसा के बाद होना हास्यास्पद है।
श्री वासुदेव अभ्यंकर द्वारा रचित अद्वैतामोद के अनुसार श्रीभगवत्पाद का जन्मकाल युधिष्ठिर संवत् 2631 तथा 32 वर्ष की आयु में तिरोधान काल (देहावसान) युधिष्ठिर संवत् 2663 है। युधिष्ठिर संवत् से कलि संवत् 36 से 37 वर्ष बाद आरंभ हुआ था। अभी ईस्वी सन् 2024 में कलि संवत् 5125 है। अतएव आदिशंकराचार्य भगवान का अवतार अभी से 5125 – 2594 = 2531 वर्ष पहले हुआ, जो ईस्वी सन् 2531 – 2024 = 507 वर्ष पूर्व होता है।
‘भविष्योत्तर’ में भी आदिशंकराचार्य भगवान का जन्म युधिष्ठिर संवत् 2631 ही वर्णित है। द्वारका शारदा पीठ के प्रथम शंकराचार्य श्रीमज्जगद्गुरु सुरेश्वराचार्य के साक्षात पट्टशिष्य श्री चित्सुखाचार्य ने भी अपने ग्रंथ ‘शंकर विजय’ में भगवत्पाद का आविर्भाव युधिष्ठिर संवत् 2631 में ही उद्घोषित किया है। जैनों के अभिमत ‘जिनविजय’ के अनुसार तथा ‘पुण्यश्लोकमंजरी’ के अनुसार भगवत्पाद का निर्वाण युधिष्ठिर संवत् 2662 सिद्ध है। इस प्रकार उससे 31 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर संवत् 2631 ही उनका जन्मकाल सिद्ध होता है। भगवत्पाद ने युधिष्ठिर संवत् 2651 में अर्थात ईसा पूर्व 487 वर्ष में नेपाल की भी यात्रा की थी। रानी सुधन्वा द्वारा भगवत्पाद को समर्पित ताम्र प्रशस्ति पत्र में भी युधिष्ठिर शक 2663 का उल्लेख है, जो भगवत्पाद के देहावसान का वर्ष है। ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्री गोवर्धन मठ पुरीपीठ की स्थापना ईसा पूर्व 486 में हुई और तब से अभी तक के सभी शंकराचार्यों का उल्लेख उनके कार्यकाल के साथ उपलब्ध है, जिससे आदिशंकराचार्य महाभाग का अवतार ईसा पूर्व 507 वर्ष ही सिद्ध होता है, न कि ईसा मसीह के जन्म के बाद।
आदि शंकराचार्य महाभाग का मात्र 32 वर्ष का जीवनकाल अनेक विचित्रताओं से भरा रहा। पांच वर्ष की अवस्था में उनका उपनयन संस्कार हुआ। उसी वर्ष उनके पिता का देहान्त हो गया। संन्यास लेने की भावना से आठ वर्ष की अवस्था में ही शंकर ने वैधव्य, जरावस्था तथा संन्यास के लिए पुत्र का गृहत्याग करने पर होने वाली पुत्र वियोग की व्याकुलता तथा मरणोत्तर संस्कारादि की चिंता से विह्वल माता से अनुमति प्राप्त कर गृहत्याग कर दिया। युधिष्ठिर शक 2639 कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी को संन्यास पथ पर प्रयाण कर युधिष्ठिर शक 2640 फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, गुरुवार को उन्होंने गुरुवर यतीन्द्र श्रीगोविंदपद्मपादाचार्य भगवत्पाद से विधिवत संन्यास ग्रहण किया।
श्रीभगवत्पाद शंकराचार्य ने बदरीकाश्रम में रह कर युधिष्ठिर संवत् 2640 से 2646 तक 9 से 16 वर्ष की आयु तक श्रीविष्णुसहस्त्रनाम, श्रीमद्भगवद्गीता, ईश-केनादि उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों पर अद्भुत भाष्य लिखे। उन्होंने प्रपंचसार नामक तंत्रग्रंथ, विवेकचूड़ामणि आदि प्रकरण ग्रंथों तथा सौंदर्यलहरी आदि स्तोत्रग्रंथों की भी रचना की।
32 वर्ष की अल्पायु की सीमा में ही आदिशंकराचार्य महाभाग ने उस समय भारत में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव और सनातन धर्म के विरुद्ध उत्पात एवं सनातन देवी-देवताओं के अपमान का सामना करने में अक्षम बन चुके सनातनियों को संगठित कर तथा सनातन धर्म में पैठ बना चुकी विसंगतियों को दूर कर सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया।
देश में धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था सही ढंग से चलती रहे, इस उद्देश्य से उन्होंने देश के चार भागों पुरी, शृंगेरी, द्वारिका तथा बदरीकाश्रम में चार शंकराचार्य आम्नाय मठों अर्थात् धार्मिक राजधानियों की स्थापना की तथा चारों मठों में एक-एक शंकराचार्य को प्रतिष्ठित कर सनातन धर्म की परंपरा को सुरक्षित रखने का मार्ग प्रशस्त किया। चारों मठों के शंकराचार्य को शिवावतार मानते हुए उन्होंने सबों का महत्व अपने सामान ही प्रतिष्ठित किया।