मोहम्मद रफी, अपनी बेमिसाल आवाज और अद्भुत गायकी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन वे सिर्फ एक शानदार गायक ही नहीं, बल्कि एक नेकदिल इंसान भी थे। उनकी दरियादिली की मिसालें आज भी दी जाती हैं। चाहे किसी जरूरतमंद की मदद करनी हो या धार्मिक स्थलों पर दान देना, रफी साहब हमेशा सबसे आगे रहते थे।
मस्जिद को दान ठुकराने का वाकया
एक बार रफी साहब ने इंदौर के पुरानी पलासिया मस्जिद के लिए 5,000 रुपये दान किए। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि मस्जिद समिति ने यह दान अस्वीकार कर दिया।
दान को बताया गया ‘नापाक’
रफी साहब को इस अस्वीकार का कारण जानकर गहरा धक्का लगा। उनकी बहू यास्मीन खालिद रफी ने अपनी किताब “मोहम्मद रफी: माई अब्बा” में इस घटना का जिक्र किया है।
मस्जिद समिति का मानना था कि गायकी से हुई कमाई इस्लाम के अनुसार ‘जायज’ नहीं है। इसलिए इसे मस्जिद के लिए उपयोग करना सही नहीं है। इस वजह से रफी की कमाई को ‘नापाक’ करार दिया गया।
रफी साहब का करारा जवाब
रफी, जो आमतौर पर शांत और संयमित रहते थे, इस घटना पर भावुक हो गए। उन्होंने कहा,
“अल्लाह ने मुझे यह हुनर दिया है, जिसे मैंने मेहनत और ईमानदारी से निखारा है। फिर भी मेरी कमाई नापाक है? अगर इस्लाम का यही संदेश है, तो अल्लाह ही बेहतर जानता है कि किसकी कमाई जायज है और किसकी नहीं।”
यह घटना रफी साहब की सच्ची भावनाओं और उनके मजबूत व्यक्तित्व को दिखाती है।
दरियादिली का सबूत: हर जरूरतमंद की मदद
फकीर से प्रेरणा
रफी साहब के बचपन की एक घटना ने उनकी जिंदगी की दिशा तय की। लाहौर की गलियों में एक फकीर सूफी कविताएं गाया करता था। उसी से प्रेरित होकर रफी ने संगीत को अपना जीवन समर्पित करने का निर्णय लिया।
यास्मीन ने अपनी किताब में लिखा है कि रफी हमेशा अपनी कार में सिक्के और नोट्स का एक बॉक्स रखते थे। जब भी उनका वाहन किसी ट्रैफिक सिग्नल पर रुकता, वे भिखारियों को पैसे देते थे।
गुल्लक तोड़कर दिए सारे पैसे
बचपन में, जब रफी मात्र 10 साल के थे, एक फकीर ने उनसे मदद मांगी। बिना सोचे-समझे, उन्होंने अपनी मिट्टी की गुल्लक तोड़कर उसमें जमा सारे पैसे उसे दे दिए। हालांकि, इस पर उन्हें डांट भी पड़ी, लेकिन उनकी यह आदत ताउम्र बरकरार रही।
भावनाओं में बहकर 100 रुपये का दान
रफी के बेटे शाहिद रफी ने एक किस्सा साझा किया। एक बार, रफी स्टूडियो जाते वक्त अपने बेटे को स्कूल छोड़ने निकले। रास्ते में एक भिखारी ने गाना गाते हुए भीख मांगी। गाने के बोल थे:
“पहले पैसा फिर भगवान, बाबू देते जाना दान, देते जाना।”
यह गाना रफी ने फिल्म ‘मिस मेरी’ (1957) के लिए गाया था। भिखारी की यह कोशिश रफी के दिल को छू गई, और उन्होंने उसे 100 रुपये का नोट दे दिया।
रफी का दान और धार्मिकता के प्रति समर्पण
रफी साहब की जिंदगी में इंसानियत का बड़ा महत्व था। उनका मानना था कि मदद का कोई धर्म नहीं होता। वे हमेशा जरूरतमंदों की सहायता करते और धार्मिक स्थलों के लिए उदारतापूर्वक दान देते थे।