क्या भारत धीरे-धीरे फेफड़ों के कैंसर की महामारी की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल आज देश के लिए चिंता का विषय बन गया है। पहले जहां यह बीमारी सिर्फ धूम्रपान करने वालों को होती थी, वहीं अब धूम्रपान न करने वालों में भी इसके मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। दुनिया की जानी-मानी मेडिकल पत्रिका ‘द लैंसेट’ में एशिया में फेफड़ों के कैंसर के मामलों की समीक्षा से चौंकाने वाली बात सामने आई है। भारत में फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित मरीजों का प्रोफाइल पश्चिमी देशों से काफी अलग है। यहां धूम्रपान न करने वाले लोग भी फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित हैं और उनकी उम्र पश्चिमी देशों के मुकाबले 10 साल कम हो सकती है।
अध्ययन के अनुसार, भारत में फेफड़े के कैंसर का पता औसतन 54-70 वर्ष की आयु में चलता है, जबकि पश्चिमी देशों में इसका पता लगभग एक दशक बाद चलता है। मुख्य रूप से टाटा मेमोरियल सेंटर, मुंबई के डॉक्टरों द्वारा लिखे गए इस लेख का शीर्षक है ‘दक्षिण पूर्व एशिया में फेफड़े के कैंसर की विशिष्टता’। लेख में कहा गया है कि 2020 में फेफड़े का कैंसर इस क्षेत्र में तीसरा सबसे आम कैंसर था (18.5 लाख नए मामले या 7.8%)। हालांकि, यह कैंसर से होने वाली मौतों का प्रमुख कारण भी है, जिससे 16.6 लाख या 10.9% मौतें होती हैं।
2.2 मिलियन नए मामले
वैश्विक आंकड़ों की तुलना में, दुनिया भर में 2.2 मिलियन नए मामले (11.6%) और 1.7 मिलियन मौतें (18%) हुईं। भारत में, फेफड़े के कैंसर के कारण हर साल 72,510 मामले (5.8%) और 66,279 मौतें (7.8%) होती हैं। भारतीय रोगियों की ‘अद्वितीयता’ पर प्रकाश डालते हुए, टाटा मेमोरियल सेंटर के मेडिकल ऑन्कोलॉजी विभाग के डॉ. कुमार प्रभाष, जो लेखकों में से एक हैं, ने कहा कि हमारे फेफड़ों के कैंसर के 50% से अधिक रोगी धूम्रपान नहीं करते हैं।
मुख्य कारण क्या है?
अध्ययन में कहा गया है कि धूम्रपान न करने वालों में फेफड़े के कैंसर के लिए महत्वपूर्ण जोखिम कारकों में वायु प्रदूषण (विशेष रूप से पार्टिकुलेट मैटर PM2.5), कार्यालय में एस्बेस्टस, क्रोमियम, कैडमियम, आर्सेनिक और कोयले के संपर्क में आना, साथ ही घर में सेकेंड हैंड धुआं शामिल हैं। आनुवंशिक संवेदनशीलता, हार्मोनल स्थिति और पहले से मौजूद फेफड़ों की बीमारी जैसे कारक भी धूम्रपान न करने वालों में फेफड़े के कैंसर की बढ़ती घटनाओं में भूमिका निभा सकते हैं।
विशेषज्ञ की राय क्या है?
डॉ. प्रभाष ने आगे कहा कि भारत में फेफड़े के कैंसर के मामले पश्चिमी देशों से कम हैं। अमेरिका में फेफड़े के कैंसर की दर 1000 में 30 है, जबकि भारत में यह 1000 में 6 है। हालांकि, हमारी विशाल आबादी को देखते हुए, 6% भी रोगियों की एक बड़ी संख्या है। उन्होंने कहा कि भारत में फेफड़े के कैंसर की समस्या की एक और विशेषता टीबी का उच्च प्रसार है। निदान में अक्सर देरी होती है क्योंकि टीबी और फेफड़े का कैंसर दोनों एक दूसरे से मिलते जुलते हैं। इस संबंध में, लेखकों का कहना है कि नए उपचार और दवाओं तक पहुंच आसान नहीं है। अधिकांश उपचार विदेशों में विकसित किए गए हैं और उन्हें आयात करने से लागत बढ़ जाती है।