स्वतंत्र देश में निरंकुश तानाशाही, आपातकाल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संघर्ष

देहरादून, 25 जून (हि.स.)। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता, 25 जून 1975 में देश में आपातकाल, अब अमृतकाल की ओर आजाद भारत। भारत स्वाधीनता के 75वीं वर्षगांठ पर अमृत महोत्सव मनाने के साथ अब शताब्दी की ओर अग्रसर है। हमारा लोकतंत्र 75 वर्ष की यात्रा पूर्ण कर चुकी है, परंतु अब तक की यह यात्रा इतनी आसान नहीं रही है। इस पर 21 माह का एक भयानक एवं डरावनें आपातकाल का ग्रहण लगा था, जिसे हटाने के लिए देश की जनता को संघर्ष करना पड़ा।

आपातकाल के गवाह धर्मवीर सिंह ने हिन्दुस्थान समाचार से विशेष बातचीत में कहा कि भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हर भारतीय को इस पर गर्व है। केवल इतना ही नहीं सत्ता का विकेंद्रीकरण, संघवाद, संसद, न्यायपालिका इत्यादि सभी गर्व करने लायक हैं।

उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में अस्करीपुर गांव में 24 जुलाई 1947 को जन्मे धर्मवीर सिंह ने कहा कि आपातकाल का ग्रहण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही चरित्र का प्रकटीकरण था। जब 25 जून 1975 की आधी रात लागू हुआ था आपातकाल, छिन गए थे जनता के सारे अधिकार, जिसे भारतीय राजनीति के इतिहास का काला अध्याय भी कहा जाता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दाग की तरह नजर आने वाले आपातकाल को याद रखना जरूरी है। देश अब उस भयावह दौर की याद से उबर चुका है, लेकिन उस दौर की कहानी पीढ़ियों को बताती रहेगी कि लोकतंत्र और आजादी का असल मतलब क्या होता है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून की तिथि याद रखनी चाहिए।

बहुत मुश्किल था वह दौर

देश के उस काल को उस दौर के धर्मवीर सिंह अंधाकाल कहते हैं। वे बताते हैं कि 1975 का आपातकाल भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय था। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की रात को देश में आपातकाल लागू किया तो सबसे पहले प्रतिबंधित होने वाले संगठनों में से एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित किए गए संगठनों में सबसे बड़ा था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया।

धर्मवीर शुरू से ही बहुत दुबले-पतले थे। वे देश के प्रति दृढ़ संकल्पित थे। उन्होंने कक्षा पांच तक की शिक्षा गांव में पूरी कर 1964 में गोहावर (बिजनौर) से कक्षा 11 की परीक्षा उत्तीर्ण की, पर स्वास्थ्य बिगड़ने से वे कक्षा 12 की परीक्षा नहीं दे सके। इस कमी को उन्होंने 1984 में आगरा से व्यक्तिगत परीक्षा देकर पूरा किया। 1966 में वे पढ़ाई के लिए अपने मामा के गांव बसेड़ा कुंवर गए हुए थे। वहां संघ की शाखा लगती थी। अपने ममेरे भाई ओमप्रकाश सिंह के साथ वे भी वहां जाने लगे, पर कुछ समय बाद वह शाखा बंद हो गई। इस पर वहां के मंडल कार्यवाह महेंद्र ने उन्हें ही शाखा लगाने की विधि सिखा दी। इससे धर्मवीर ने मुख्य शिक्षक बनकर वह शाखा फिर शुरू कर दी।

1967 से 71 तक उन्होंने रामगंगा बांध परियोजना के कालागढ़ स्थित प्राथमिक चिकित्सा केंद्र की फार्मेसी में काम किया। 1968, 69 तथा 1971 में उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग पूरे किए। अब उन्होंने नौकरी छोड़ दी और संघ के प्रचारक बन गए। चमोली, जोशीमठ, कर्णप्रयाग के बाद उन्हें 1975 में चमोली जिला प्रचारक बनाया गया, पर तभी देश में आपातकाल और फिर संघ पर प्रतिबंध भी लग गया। इससे वे कभी पहाड़ तो कभी बिजनौर जिले में जन जागरण करते रहे। एक बार पुलिस वालों ने उनके गांव आकर उनके घर की कुर्की भी की, पर धर्मवीर और उनके परिवार वाले डरे नहीं। धर्मवीर को संघ कार्य में रज्जू भैया, ओमप्रकाश, कौशल, ज्योति, सूर्यकृष्ण, गजेंद्र दत्त नैथानी, अशोक सिंघल, भाउराव देवरस, माधवराव देवड़े आदि वरिष्ठ प्रचारकों का भरपूर सानिध्य और स्नेह मिला है। कमजोर शरीर के बावजूद वे दृढ़ संकल्प के धनी हैं। इन दिनों वे मेरठ के प्रांतीय कार्यालय प्रमुख के नाते वहां की देखभाल कर रहे हैं।

धर्मवीर को पैदल चलने का बहुत अभ्यास रहा है। आपातकाल में कई बार सड़क पर पुलिस दिख जाती थी तो वे पैदल मार्गों से एक से दूसरी पहाड़ पर निकल जाते थे। इस प्रकार उन्होंने पूरे गढ़वाल में संपर्क बनाए रखा। एक बार वे साहसपूर्वक बिजनौर जेल में जाकर वहां बंदी कार्यकर्ता विद्यादत्त तिवारी से खुद को उनका बड़ा भाई बताकर मिल भी आए। बाद में जब जेल अधिकारियों को असली बात पता लगी तो बड़ा हड़कंप मचा। प्रतिबंध हटने पर उन्हें फिर चमोली जिले का काम दिया गया, पर आपातकाल के अस्त-व्यस्त जीवन से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नकुड़, हरदोई, पीलीभीत, रामपुर, चांदपुर, नोयडा, दादरी आदि में नगर तथा तहसील प्रचारक रहे। कई वर्ष वे प्रांत कार्यालय (आगरा) की व्यवस्था में भी सहयोगी रहे। उत्तरांचल और मेरठ प्रांत में सेवा प्रमुख, उत्तरांचल प्रांत कार्यालय प्रमुख (देहरादून), केशव धाम (वृंदावन), अल्मोड़ा और मुरादाबाद में भी वे रहे।

धर्मवीर की खोज में रामसजीवन को उठा ले गई पुलिस

अब बात करते हैं धर्मवीर के दोस्त काकोरी लखनऊ निवासी स्व. रामजीवन शुक्ला के बारे में। धर्मवीर के पीछे जब पुलिस लगी हुई थी तब वे इनके यहां भी ठहरे थे। रामजीवन शुक्ला उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के चीन से लगती सीमा पर सीमांत जनपद चमोली के स्वास्थ्य विभाग में गौचर में बीबीजी टेक्नीशियन के पद पर सेवारत थे। कर्णप्रयाग एवं गौचर के मध्य चटवापीपल (बमौथ ग्राम की दुकानें) में किराये पर कमरा लेकर रहते थे। 7/8 जुलाई की मध्यरात्रि उस जिले के पुलिस उपाधीक्षक (उस समय जिले में पुलिस अधीक्षक का पद नहीं था) घिल्डियाल ने तीन थानाध्यक्ष चमोली, कर्णप्रयाग, नारायणबगड़ एवं 25-30 सिपाहियों के साथ धर्मवीर की खोज में रामसजीवन के आवास पर पहुंचकर उनका द्वार खटखटाया। द्वार खोलने पर पुलिस वालों ने उनसे बड़े रौब से पूछा- धर्मवीर कहां है? उनके द्वारा अनभिज्ञता प्रकट करने पर पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके ले गई। संयोग से उस समय शुक्ला जी के साथ ही उनके आवास पर ग्राम चाका बैरासकुंड निवासी अध्यापक कुन्दनलाल भी सो रहे थे। वे तो अपनी एवं शुक्ला की चतुराई के कारण गिरफ्तार होने से बच गए थे। कुन्दनलाल ने रामसजीवन को बता दिया था कि मैं उनके कमरे पर चाका में हूं परंतु उन्होंने पुलिस वालों को कुछ नहीं बताया। रामसजीवन संपूर्ण आपातकाल 21 माह तक पौड़ी एवं बरेली की जेलों में ही रहे। तब तक उन्हें वेतन भी नहीं मिला था। किसी प्रकार उनकी धर्मपत्नी मायादेवी शुक्ला वहां के लोगों से चटवापीपल (गौचर) से हरिद्वार एवं वहां से बरेली जिले की आंवला तहसील के रामनगर तक का किराया एकत्र कर अपने पिता के पास पहुंचीं। वहां उनके पिता सेना से अवकाश प्राप्त होकर आए थे।