भगवान महावीर को जैन धर्म का चौबीसवाँ तीर्थंकर माना जाता है। महावीर जयंती जैन समुदाय का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। हर साल जैन धर्म के अनुयायी चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन यह त्योहार मनाते हैं। इस दिन भगवान महावीर का जन्म हुआ था, जो जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर हैं। महावीर जयंती बहुत धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाने वाला त्योहार है।
भगवान महावीर का जन्म चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को हुआ था। जैन धर्म में इस दिन को महावीर जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष महावीर जयंती कल, गुरुवार, 10 अप्रैल को मनाई जाएगी। भगवान महावीर का जन्म एक राजपरिवार में हुआ था। बहुत छोटी उम्र में ही उन्होंने सभी भौतिक सुखों को त्याग दिया और भिक्षु का जीवन अपना लिया। आइये जानते हैं भगवान महावीर को केवलिन की उपाधि कैसे मिली।
महावीर स्वामी, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर
सत्य, अहिंसा और मानवता के प्रति प्रेम के प्रति प्रतिबद्धता के कारण महावीर स्वामी को जैन धर्म का 24वां तीर्थंकर माना जाता है। उन्होंने जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव के सिद्धांतों को विस्तार दिया और आगे बढ़ाया।
उनका जन्म वैशाली में हुआ था।
महावीरजी का जन्म बिहार के वैशाली क्षेत्र के कुण्डग्राम में हुआ था। उनका जन्म एक राजसी परिवार में हुआ था, उनके पिता सिद्धार्थ कुण्डग्राम के राजा थे। राजसी परिवार में जन्म लेने के कारण स्वामीजी का जीवन आरामदायक और विलासितापूर्ण था। उनका बचपन का नाम वर्धमान था।
पूर्व से पश्चिम की ओर विस्तार
महावीरजी ने जैन धर्म को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई। उन्होंने जैन धर्म को उड़ीसा से मथुरा तक फैलाया। उन्होंने मौर्य और गुप्त राजवंशों के शासनकाल के दौरान जैन धर्म के पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
महावीर स्वामी के सिद्धांत
महावीर स्वामी मानवता के कल्याण के लिए पूरी तरह समर्पित थे। उन्होंने समाज में व्याप्त जाति प्रथा का विरोध किया तथा लोगों को ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत के माध्यम से लोक कल्याण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
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वर्धमान को बचपन से ही संन्यास की तीव्र इच्छा थी। उन्हें धन और शक्ति में कोई रुचि नहीं थी। इस दौरान उनके पिता का निधन हो गया, जिससे वर्धमान की जीवन की शेष उम्मीदें भी समाप्त हो गईं। जब वे सेवानिवृत्त हुए तब उनकी आयु मात्र 30 वर्ष थी। इसके बाद उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। इस तपस्या के फलस्वरूप उन्हें जम्बक वन में ऋजुपालिका नदी के तट पर शाल्व वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस ज्ञान को कैवल्य कहा जाता है और इसीलिए भगवान महावीर को केवलिन की उपाधि दी गई। इसके बाद उनके विचारों और शिक्षाओं ने न केवल आम लोगों को, बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। उनकी ख्याति सर्वत्र फैलने लगी और उनके अनुयायियों एवं शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी।