महात्मा फुले जयंती: फुले को बचपन में ही छोड़नी पड़ी थी स्कूल…बाद में बने भारत के सबसे बड़े समाज सुधारक

महात्मा ज्योतिबा फुले को छोटी उम्र में ही स्कूल छोड़ना पड़ा, लेकिन उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। लड़कियों की शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह और जातिवाद के खिलाफ उनके संघर्ष ने उन्हें भारत के सबसे महान समाज सुधारकों में से एक बना दिया। उनकी जयंती प्रेरणा का प्रतीक है।

महात्मा ज्योतिबा फुले की जयंती हर साल 11 अप्रैल को मनाई जाती है। महात्मा फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा में हुआ था। ज्योतिबा फुले बचपन से ही मेधावी थे, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण उन्हें कम उम्र में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। हालाँकि, बाद में जब उन्हें शिक्षा की ताकत का एहसास हुआ तो उन्होंने 1841 में पुणे के स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल में दोबारा दाखिला लिया और वहीं से अपनी शिक्षा पूरी की। अब उन्हें भारत के सबसे महान समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। आइए जानें महात्मा ज्योतिबा फुले की शिक्षा और योगदान के बारे में

महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म 1827 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के कटगुन गाँव में हुआ था। वह एक प्रसिद्ध समाज सुधारक, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वह जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाने वाले शुरुआती नेताओं में से एक थे। वह ऐसी जाति से थे जिसे समाज में बहिष्कृत माना जाता था, फिर भी उन्होंने शिक्षा और सुधार का मार्ग अपनाया।

 

महात्मा फुले को डिग्री कैसे मिली?

महात्मा फुले की शिक्षा एक ईसाई मिशनरी स्कूल में हुई थी। 1873 में उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य जातिगत भेदभाव को खत्म करना और निम्न वर्ग के लोगों को न्याय दिलाना था। यह समाज सत्य की खोज और समानता को बढ़ावा देने पर आधारित था। 1888 में विट्ठलराव कृष्णजी वांडेकर ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी, जिसका अर्थ है – ‘महान आत्मा’। महात्मा फुले ने भेदभाव, जातिवाद और छुआछूत जैसी बुरी प्रथाओं का विरोध किया और पवित्रता और अशुद्धता के झूठे नियमों को अस्वीकार कर दिया।

फुले का योगदान क्या है?

जनवरी 1848 में उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर पुणे के भिड़े वाडा में देश का पहला स्वदेशी स्कूल खोला, जो केवल लड़कियों के लिए था।

 

ज्योतिबा और सावित्रीबाई स्वयं इस स्कूल में पढ़ाते थे। उस समय सावित्रीबाई की उम्र मात्र 17 वर्ष थी।

1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था की स्थापना हुई। इसका अर्थ था ‘सत्य का अन्वेषक’। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने महाराष्ट्र के निम्न वर्गों में समान, सामाजिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त करने के लिए जागरूकता पैदा की।

1873 में फुले ने गुलामगिरी नामक पुस्तक लिखी, जिसका अर्थ गुलामी है। महात्मा ज्योतिराव फुले की लगभग 15 अन्य उल्लेखनीय प्रकाशित कृतियाँ हैं।

ज्योतिराव फुले ने उच्च जाति की महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और श्रमिकों की दुर्दशा के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। इससे पता चलता है कि वे सभी प्रकार की असमानता के खिलाफ थे।

ज्योतिबा फुले के कार्यों से प्रभावित होकर समाज सुधारक विट्ठलराव कृष्णाजी वंदेकर ने उन्हें महात्मा की उपाधि दी।