
देश की न्यायपालिका पर बढ़ते बोझ और लंबित मामलों की चुनौती कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब खुद किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अपनी अत्यधिक कार्यभार का खुलकर जिक्र करना पड़े, तो स्थिति की गंभीरता और बढ़ जाती है। ऐसा ही एक चौंकाने वाला बयान हाल ही में बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति माधव जामदार ने दिया है।
उन्होंने खुले अदालत में सुनवाई के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा कि वह अक्सर रात 11:30 बजे के बाद ही अदालत से निकलते हैं, और इतनी देरी तक उन्हें लगातार मामलों की सुनवाई करनी पड़ती है। यह टिप्पणी न केवल न्यायाधीशों के व्यक्तिगत बलिदान और तनाव को उजागर करती है, बल्कि देश की न्यायिक प्रणाली पर व्याप्त भारी कार्यभार को भी रेखांकित करती है।
भारत की अदालतों में करोड़ों मामले लंबित हैं, और न्यायाधीशों की संख्या इस अनुपात में बहुत कम है। ऐसे में मौजूदा न्यायाधीशों पर अत्यधिक दबाव आ जाता है। उन्हें प्रतिदिन निर्धारित घंटों से कहीं अधिक समय तक काम करना पड़ता है ताकि वे मुकदमों के बढ़ते ढेर को कुछ हद तक कम कर सकें। न्यायमूर्ति जामदार का बयान इसी यथार्थ को दर्शाता है कि कैसे न्यायाधीशों को दिन-रात न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया में जूझना पड़ता है।
इस तरह के अत्यधिक काम के घंटे न्यायाधीशों के स्वास्थ्य और व्यक्तिगत जीवन पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, जिससे उनकी निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है। यह स्थिति न्यायिक प्रक्रिया में देरी का भी एक प्रमुख कारण है, जहां ‘न्याय में देरी, न्याय से इनकार’ का सिद्धांत बार-बार चुनौती का सामना करता है।
यह बयान नीति निर्माताओं और न्यायिक प्रशासन के लिए एक महत्वपूर्ण चेतावनी है कि न्यायिक नियुक्तियों को तेज करने, बुनियादी ढांचे में सुधार करने, और कानूनी प्रक्रियाओं को अधिक सुव्यवस्थित करने की तत्काल आवश्यकता है। न्यायाधीशों पर कार्यभार कम करने से न केवल उन्हें गुणवत्तापूर्ण न्याय प्रदान करने में मदद मिलेगी, बल्कि त्वरित और कुशल न्याय वितरण प्रणाली को भी बल मिलेगा, जो अंततः आम नागरिकों के भरोसे और राष्ट्र की प्रगति के लिए अपरिहार्य है।