आम चुनाव की घोषणा के साथ आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो गई है। सामान्य संवाद की भाषा बदल गई है। शब्द आक्रामक हो गए हैं। संवाद की शालीनता समाप्त हो रही है। कायदे से दलतंत्र को लोकतंत्र की मजबूती के लिए काम करना चाहिए। संवाद की भाषा परस्पर प्रेमपूर्ण होनी चाहिए। दल परस्पर शत्रु नहीं हैं। वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को आमजनों तक ले जाने और मजबूत करने के उपकरण हैं। लेकिन शब्द अपशब्द हो रहे हैं। वैचारिक आधार पर दलों के मध्य बहस नहीं है। प्रधानमंत्री तक को अपशब्द कहे गए हैं। भारत के आम चुनाव दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्री उत्सव हैं। लेकिन अपशब्दों के प्रयोग वातावरण को उतप्त कर रहे हैं। आचार संहिता में निर्देश दिए गए हैं कि सभी दल और उम्मीदवार जाति, सम्प्रदाय, पंथिक समूह या भाषाई समूहों के मध्य अलगाववाद बढ़ाने से दूर रहेंगे। परस्पर विद्वेष और तनाव बढ़ाने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे। संहिता में राजनैतिक दलों की नीतिगत आलोचना की छूट दी गई है। आलोचना में भी संयम बरतने के निर्देश हैं। सबसे बड़ी बात है कि नेताओं और कार्यकर्ताओं की निजी जिंदगी की आलोचना नहीं करेंगे। आदर्श चुनाव आचार संहिता में इसी तरह के तमाम संयम की अपेक्षा की गई है। इस सब के बावजूद व्यक्तिगत आरोपों के माध्यम से वातावरण को बिगाड़ने का काम हो रहा है।
शब्द की शक्ति बहुत बड़ी है। शतपथ ब्राह्मण के ऋषि ने वाणी को विराट कहा है। बाईबल में घोषणा है कि सबसे पहले शब्द था-‘इट वाज लोगोस फस्र्ट’। महर्षि व्यास ने शब्द को ब्रह्म कहा है। शब्दों के सदुपयोग से सृजन की गतिविधि चलती रही है। पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ में ध्यान दिलाया है कि एक ही शब्द का स्थान के अनुसार प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थ देता है। कबीरदास ने भी कहा है कि, ”शब्द की मार बड़ी है।” शब्द साधना स्तुतियों, काव्य और गीतों में प्रकट होती है। शब्द संयम अपरिहार्य है। ऐतरेय उपनिषद के शांति पाठ में प्रार्थना है, ”हे परमात्मा मेरी वाणी मन में स्थित हों और मन वाणी में स्थित हो जाए। मेरे मन और वाणी साथ साथ काम करे। मेरे संकल्प और वचन विशुद्ध होकर एक रहे। मेरा सुना हुआ और अनुभव में आया हुआ ज्ञान मेरा त्याग न करे। मेरा ज्ञान मुझे सदा स्मरण रहे।” मन का अनुशासन जरूरी है। अनुशासित मन से सुन्दर शब्द और अर्थ निकलते हैं। मन और वाणी एक साम्य में हमारा मार्गदर्शन करें। ऋषि संकल्प करते हैं, ”मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे ही शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो दोषरहित हो। मैं सत्य बोलूंगा-सत्यं बदिष्यामि। मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। भारतीय परंपरा में शब्द अनुशासन पर अतिरिक्त जोर दिया गया है।”
सृष्टि के जन्म और विकास के अनेक सिद्धांत हैं। चाल्र्स डारविन का सिद्धांत विकासवादी कहा जाता है। स्टीफेन हाकिंग जैसे ब्रह्माण्ड विज्ञानी सृष्टि के उद्भव पर काम करते रहे हैं। आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानियों का कथन है कि एक समय सृष्टि का सारा पदार्थ और ऊर्जा एक छोटे से बिंदु पर थी। इसे ब्रह्म अण्ड भी कहा जाता है। अत्यधिक दबाव के कारण ब्रह्म अण्ड फूटा। उसके कण गतिशील हुए और इस तरह सृष्टि का विकास आगे चल पड़ा। वैज्ञानिक कार्ल सागन ने इसे कॉस्मिक एग ‘ब्रह्म अण्ड’ कहा है। ऋग्वेद में इसे हिरण्यगर्भ कहा गया है। हिरण्य का अर्थ स्वर्ण या कोई अति चमकीली धातु है। ऋग्वेद में कहते हैं कि सबसे पहले हिरण्यगर्भ ही थे। ऐतरेय उपनिषद ऋग्वेद के आरण्यक का भाग है। उपनिषद (खण्ड 1-4) में कहा गया है, ”हिरण्यगर्भ पुरुष ने स्वयं को प्रकट करने के उद्देश्य से तप किया। तप के फलस्वरूप हिरण्यगर्भ फूट गया। इससे फूटकर मुख छिद्र बना। इसी मुखछिद्र से वाणी उत्पन्न हुई।” वाणी आराध्य है। वाणी से ही विचार प्रकट होते हैं। वाद, विवाद और संवाद वाणी से ही संभव है। वाणी के ही सम्यक प्रयोग से संस्कृति का विकास हुआ। ऋग्वेद (10-125) में वाणी सम्पूर्ण प्रकृति को धारण करती है। वाणी में समूचा संसार व्याप्त है।
ऋग्वेद में वाणी का सुन्दर विवेचन है। वाणी के चार रूप बताए गए हैं। पहले रूप को ‘परा’ कहा है। यह मन में स्थित रहती है। दूसरी का नाम ‘पश्यन्ती’ बताया गया है। इस मनोदशा में वाणी प्रकट करने का विचार उठता है। तीसरी ‘मध्यमा’ है। इस तल पर विचार शब्द अपना रूप ग्रहण करता है। शब्द योजना बनती है। शब्दों का विवेकीकरण होता है। चौथी का नाम ‘बैखरी’ बताया गया है। यह प्रकट वार्ता है। लेकिन साधारण लोग पहली तीन स्थितियां कम जानते हैं। वे केवल चौथी का ही प्रयोग करते हैं। वाणी के सभी रूप पालनीय हैं।
प्राचीन सुमेरी सभ्यता का विवेचक क्रेमर ने लिखा है कि, ”सुमेरी दार्शनिकों ने दैवीय शब्द की सृजन शक्ति का सिद्धांत बताया था। सृजनकर्ता को योजनाओं के बारे में बोलना था। इच्छानुसार शब्द बोलने से ही कामना पूरी हो जाती थी।” दर्शन में आकाश का गुण शब्द बताया गया है। शब्द शक्ति की खोज और पहचान का आदिस्रोत भारत है, ऋग्वेद है। चीन के एक दार्शनिक लाओत्सु (ईसापूर्व 400 वर्ष लगभग) ने भी सृष्टि के विकास पर लिखा है। ‘ताओ ते चिग’ उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। ‘ताओ ते चिग’ भी वाणी और शब्द का चमत्कार है। वाणी आराध्य है। छान्दोग्य उपनिषद में व्यथित नारद को सनत् कुमार ने वाणी की शक्ति का दर्शन बताया था। भारत में शब्द और वाणी का जैसा सदुपयोग हुआ है, वैसा अन्य सभ्यताओं में नहीं मिलता। वाणी के सम्यक ज्ञान और सम्यक सदुपयोग से मंत्र शक्ति का पादुर्भाव हुआ। मंत्र शब्दों के सम्यक प्रयोग से बनते हैं। मंत्रों का उच्चारण अनुशासित वाणी द्वारा ही संभव होता है। सुने गए शब्द अपनी अर्थवत्ता के कारण चित्त में रासायनिक परिवर्तन लाते हैं। मंत्र के प्रभाव होते हैं या नहीं? यह विषय वैज्ञानिक और दार्शनिक विवेचन का है। लेकिन वाणी की शक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता। मधुर वाणी से गीत काव्य प्रकट होते हैं। इसी के सम्यक उपयोग से स्तुतियां बनती हैं।
वाणी की शक्ति अपरिमित है। संस्कृति मनुष्य को उदात्त बनाती है। संस्कृत देववाणी है। इसमें संस्कृति के विकास की विराट क्षमता है। भारतीय संस्कृति में वाणी और शब्द के आश्चर्यजनक सदुपयोग मिलते हैं लेकिन राजनैतिक क्षेत्र में सामान्य वक्तव्य भी हिंसक हो जाते हैं। भारतीय सुभाषितों में कहा गया है कि सत्य बोलो-सत्यम ब्रूयात। प्रिय बोलो-प्रियं ब्रूयात। लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो। यहां सत्य को भी अप्रिय होने के कारण उचित नहीं कहा गया। 2024 के महासमर में सुन्दर वाणी का प्रयोग जरूरी है। लेकिन प्राचीन भारत के युद्धों में भी अश्लील और असभ्य शब्द प्रयोग नहीं मिलते। महाभारत का बड़ा हिस्सा युद्ध का है। सेनाएं आमने-सामने हैं। तब दोनों पक्षों के योद्धा परस्पर शालीन वार्तालाप करते थे। भारतीय लोकतंत्र में वैदिक काल से ही सभा समितियां हैं। स्तोता देवताओं से प्रार्थना करते हैं, ”मैं सभा में मधु बोलूं। मैं सभा में यशस्वी होऊं। उग्र विषय भी मधुर वाणी में बोलूं।” आश्चर्य है कि जिस भारत में मधुर बोलने की प्रतिस्पर्धा थी, उसी परम्परा के उत्तराधिकारी होकर भी हम शब्द संयम तोड़ रहे हैं। वातावरण नई पीढ़ी के लिए अप्रिय हो गया है।