अभिमान दो प्रकार का होता है. एक है ठोस ‘मैं’ और दूसरा है कच्चा ‘मैं’। ‘जो कुछ भी है उसमें कुछ भी मेरा नहीं है। यह शरीर भी मेरा नहीं है. मैं नित्य मुक्त हूं, मैं ज्ञान का स्वरूप हूं।’ यह निश्चित ही ‘मैं’ हूं। ‘मैं भगवान का दास हूं’ – यही विद्या का ‘मैं’ है जिसे सच्चा ‘मैं’ कहा जाता है। ‘यह मेरा लड़का है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरा शरीर है’ यह मेरा कच्चापन है। जो ‘मैं’ मनुष्य को सांसारिक बनाता है, वासना की ओर ले जाता है, वह कच्चा ‘मैं’ है। जीव और ब्रह्म के बीच अंतर केवल इसलिए है क्योंकि यह ‘मैं’ उनके बीच खड़ा है।
यदि किसी छड़ी को पानी पर मारा जाए तो वह दो भागों में बंटी हुई दिखाई देगी। यह ‘हंकार’ या ‘मैं’ की छड़ी है, इसे हटा दो और पानी अकेला रह जाएगा। ‘मैं’ से छुटकारा पाना बहुत कठिन है। इस कारण आपके ‘मैं’ को यह कहना चाहिए कि आपको भगवान का सेवक बने रहना चाहिए। मैं भगवान का दास हूं, मैं भक्त हूं- ऐसे भाव में रहो तो कोई दोष नहीं लगता। यह दृढ़ ‘मैं’ भक्ति मार्ग में प्रगति का सूचक है। इससे ईश्वर का लाभ मिलता है। ईश्वर प्राप्ति के बाद ‘दस में’ या ‘भगत में’ किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
पारस पत्थर को छूते ही तलवार सोने की हो जाती है, तलवार का आकार तो बना रहता है लेकिन वह किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकती। जब तक मनुष्य अपने ‘मैं’ से छुटकारा नहीं पा लेता, तब तक उसका जीवन खुशियों से भरपूर नहीं हो सकता। उसका ‘मैं’ यानि अहंकार सबसे अधिक समस्याओं का कारण बनता है। घमंडी व्यक्ति न केवल दूसरों को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि खुद को भी नुकसान पहुंचाता है। इसीलिए शास्त्रों में हमें अपने पांच शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को त्यागने का उपदेश दिया गया है। इन लक्षणों से दूरी उसी स्थिति में बन सकती है जब जीवन को पूरी दृढ़ता के साथ अध्यात्म के मार्ग पर ले जाया जाए। जैसे-जैसे हमारी आध्यात्मिक प्रगति होगी, ये पाँच शत्रु धीरे-धीरे हमसे दूर होते जायेंगे।